Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 18
________________ सिद्धान्तों के प्रकार (9) जैन आचार और वर्तमान समस्याएँ (10) सारांश - ये तृतीय खण्ड में रखे गये हैं। प्रथम खण्ड की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं प्रथम, जैनधर्म अपने उद्गम के लिए ऋषभदेव का ऋणी है जो चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम हैं। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में ऐसे व्यक्ति थे जो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा करते थे। निःसन्देह जैनधर्म महावीर या पार्श्वनाथ के पहले भी प्रचलित था। जैन आचार अपने उद्भव में मागधीय है। द्वितीय,सम्पूर्ण जैन आचार व्यवहार में अहिंसा की ओर उन्मुख है। गृहस्थ के आचार का वर्णन करने के लिए व्यापक पद्धति हैगृहस्थाचार को पक्ष, चर्या और साधन में विभाजित करना। सल्लेखना की प्रक्रिया का आत्मघात से भेद किया जाना चाहिए। सल्लेखना उस समय ग्रहण की जाती है जब कि शरीर व्यक्ति की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असफल हो जाता है और जब मृत्यु का आगमन निर्विवाद रूप से निश्चित हो जाता है, किन्तु आत्मघात भावात्मक अशान्ति के कारण जीवन में किसी भी समय किया जा सकता है। तृतीय, जैन तत्त्वमीमांसा जैन आचारशास्त्रीय सिद्धान्त के प्रतिपादन का आधार है। जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत तात्त्विक दृष्टि अनेकान्तवाद या अनिरपेक्षवाद के नाम से जानी जाती है। जैनदर्शन की दृढ़ धारणा है कि दर्शन में निरपेक्षवाद नैतिक चिन्तन का विनाशक है, क्योंकि निरपेक्षवाद सदैव चिन्तन की प्रागनुभविक प्रवृत्ति पर आधारित होता है जो अनुभव से बहुत दूर है। अहिंसा की (XVIII) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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