Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 29
________________ प्रस्तावना प्रस्तुत कृति मूलत: वही शोधप्रबन्ध है जो राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पीएच.डी की उपाधि के लिए सन् 1961 में स्वीकृत की गयी थी । इस कृति में सर्वप्रथम यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि सम्पूर्ण जैन आचार व्यवहार में अहिंसा की ओर उन्मुख है। जैनाचार्यों के द्वारा अहिंसा की परिपूर्ण अनुभूति को मानव जीवन का उच्चतम आदर्श समझा गया है। अहिंसा जैनधर्म में इतनी प्रमुख है कि इसे जैनधर्म का प्रारंभ और अंत कहा जा सकता है। समन्तभद्राचार्य का कथन है कि "सभी प्राणियों की अहिंसा परमब्रह्म की अनुभूति के समान है।" यह कथन अहिंसा के उच्चतम स्वभाव को प्रकाशित करता है। अहिंसा का आदर्श क्रमिकरूप से अनुभव किया जाता है। जो व्यक्ति अहिंसा का आंशिकरूप (Partially) से पालन करने के योग्य होता है वह गृहस्थ कहलाता है और जो अहिंसा का पूर्णरूप (Completely) से पालन करता है, यद्यपि परिपूर्णरूप ( Perfectly) से नहीं कर पाता वह संन्यासी या मुनि कहा गया है। निःसन्देह मुनियों का जीवन अहिंसा के अनुभव के लिए पूरा आधार प्रदान करता है, किन्तु इसका परिपूर्णरूप से अनुभव केवल आध्यात्मिक (रहस्यात्मक) अनुभव की पूर्णता में ही संभव है जो कि अर्हत् अवस्था कही जाती है। इस प्रकार गृहस्थ और मुनि दो पहिये हैं जिस पर जैन आचाररूपी गाड़ी बिलकुल आसानी से चलती है। जैन आचार्यों को यह श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने इन दो आचारों को अपनी दृष्टि में सदैव रखा। उन्होंने कभी भी एक-दूसरे के कर्त्तव्यों का घालमेल करने या उनको गड्डमड्ड करने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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