Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 05
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Shivprasad Amarnath Jain

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Page 9
________________ पूषन्द्र ! मिपार ! गुरु मक्ति से-पर्म प्रचार पासारे परस्पर संप की पृदि रोग पहुव सी भात्माएं गर भक्ति में खग भावी पिस से पर भक्ति की प्रथा बनी राती है और वो भी मा निर्भरा होमाती है भवएष ! गुरु भक्ति प्रश्पपेप करनी चाहिये । हेमचन्द्र । ससे ! नब गुरु इस पाप में पवार माएगे तप पूर्पोक बाग सकतीफिर वाहिर माने की पपा भापरयफवा।। पाद ! वपस्प ! नप एरु पपारे र उनका भाग सुने माना पा या विकार बरे तब उनका मक मनुसार पाव दूर पहुंचाने माना इस मार मक्ति परने से नगर में पर्म पषार पहावारे फिर पाव से साग एकमों को पपार हर भान पर पर्मा वाम वगत इस जिपे ! मा स्वामी श्री . पपारने का समप निकट रोराइम सब भापकों को पमपी पति लिए भागे माना पारिए दर पार ऐमपन्द्रमी ने सब भारत का पित कर दिया कि-स्पामी मी मागम पपारने वाले मना हम सर मामकों को पनी पति के लिए मागे माना पाहिये।

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