Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 8
________________ [-ख ] ५००) की सहायता दी है। उनसे इस संस्था को और सहायता मिली है, पर दान के बारे में नाम-मोह का संयम जितना उनमें है वह असाधारण है । ऐसी बातों में अपनी तारीफ सुनकर वे लज्जित ही नहीं हो जाते, पर खिन्न भी हो जाते हैं; इसलिये यहां उनकी तारीफ नहीं की जाती है । हां ! समझदारों के लिये इन शब्दों में भी काफी हो चुकी है । उनके बारे में एक बात और कहना है । जैनधर्म-मीमांसा के प्रथम भाग की प्रस्तावना के प्रारम्भ में जिन श्रीमान् सज्जन का उल्लेख हुआ है, बातचीत में जिनके प्रश्नों के उत्तर मैंने आज से करीब ग्यारह वर्ष पहिले दिये थे और इसीसे जिनने मेरे जैनधर्म विषयक व विचारों को लिपिबद्ध करने का तीव्र आग्रह किया था- वे श्रीमान सज्जन और कोई नहीं, किन्तु यहीं बाबू छोटेलालजी 1 I हैं । इसलिये मीमांसा के प्रकाशन में ही नहीं, किन्तु निर्माण में भी बाबु छोटेलालजी निमित्त कारण रहे हैं । इसलिये जो लोग इस जैनधर्म-मीमांसा के दृष्टिकोण को पसन्द करते हैं उन्हें बाबू छोटेलालजी का भी कृतज्ञ होना चाहिये, और जो इस पुस्तक के दृष्टिकोण को पसन्द नहीं करते, वे चाहें तो बाबू छोटेलालजी को मन ही मन गालियाँ दे सकते हैं। पर वे अगर इस पुस्तक के तीनों भागों को ध्यान से पढ़ जायेंगे तो गालियों के पाप से मुक्त हो जायँगे । सत्याश्रम, वर्धा. २ अक्टूम्बर १९४२ - दरबारीलाल सत्यभक्त

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