Book Title: Jain Dharm Mimansa 03 Author(s): Darbarilal Satyabhakta Publisher: Satyashram Vardha View full book textPage 7
________________ प्रस्तावना इस मीमांसा के दो भाग निकल चुके, यह तीसरा भाग है, और इसके साथ यह मीमांसा पूरी हो रही है । इस भाग में आचार-शास्त्र का विस्तृत विवेचन है । पिछले दो भागों के समान इस भाग में भी जैन-धर्म की विवेचना में क्रान्ति हुई है । जैनधर्म का मर्म प्रगट किया गया है और आज के देशकाल के अनुरूप परिवर्तन किया गया है, पुगेन रूमों का ठीक ठीक परिचय देकर उनकी आलोचना की गई है, पिछले दो हजार वर्षों में जैनधर्म में जो विकृति आ गई है वह भी दूर की गई है। जो सुधारक सम्प्रदाय भेद और अन्धश्रद्धा को दूर कर एक अभिन्न और वैज्ञानिक जैनधर्म की उपासना करना चाहते हैं उन्हें यह मीमांसा अन्त तक और पूरी तरह पथ प्रदर्शक का काम देगी । ___मीमांसा का यह भाग जैनजगत् या सत्य-सन्देश में १६ मार्च १९३४ से लगाकर १६ जून १९३५ तक सवा वर्ष में प्रकाशित हो पाया था। अब सात वर्ष बाद वह पुस्तकाकार निकल रहा है । पुस्तकाकार छपाते समय मैंने एक नज़र ज़रूर डाल ली है और कहीं कहीं कलम से छू भी दिया है, पर जिसे संशोधन कहते हैं वह मैं नहीं कर पाया हूं। समय और रुचि का अभाव ही इसका कारण है । पर इससे पुस्तक की उपयोगिता किसी भी तरह कम न समझना चाहिये । इस पुस्तक के प्रकाशन में कलकत्ते के बाबू छोटेलाल जी नेPage Navigation
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