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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/10 (छत पर कोच पड़े हुये हैं एक बड़े कोच पर पति-पत्नी बैठे हैं।)
पहला दृश्य मनोरमा-प्रियतम ! गगन का पुष्प चतुर्दिक अपनी कैसी अनुपम आभा विखेर रहा है। धरती जैसे चाँदनी से नहा उठी है। बड़ा ही रमणीय दृश्य दृष्टिगोचर हो रहा है।
सुखानन्द - हाँ प्रिये ! ऐसा सुखद सुहावना दृश्य भला क्यों न अच्छा लगेगा और तुम्हारे मुखचंद्र के सम्मुख तो आकाश का कलंकी चंद्र भी मुझे फीका फीकासा लग रहा है।
मनोरमा - बनाओ मत (मुस्कुराते हुये) भला गगनविहारी पूर्णिमा के चंद्र की सुन्दरता से हम भू निवासिनियों की कैसी तुलना ?
सुखानन्द-क्यों असम्भव है ? तनिक मेरी आँखों में आँखें डालो रानी। मेरे हृदय-सिंहासन पर तुम्हारा ही एक छत्र राज्य स्थापित है....हठीली ऐसी हो कि क्षणभर भी आँखों से ओझल नहीं होती। (हाथ पकड़कर) सच है न ?
(मनोरमा लज्जा से माथा झुका लेती है)
सुखानन्द - ओहो ! शर्मा गई। मुख लज्जा से लाल हो गया। आखिर इस लाज का अवगुंठन इस तरह कब तक अपने मुख पर डाले रहोगी मनोरमे? क्या अभी तक तुम मुझे पराया समझ रही हो ?
मनोरमा-पराया क्यों समझू (प्रेमभरे स्वर में) हटोजी, आप तो विचित्र सी बातें किया करते हैं। (मुस्कुराती है) ओहो ! बातों ही बातों में अर्धरात्रि बीत चुकी। देखो न, चन्द्र अटारी के ऊपर आकर ठहर गया है।
सुखानन्द-(बीच में बात काटकर) और बड़े प्रेम से हमारा और तुम्हारा वार्तालाप सुन रहा है।
मनोरमा - नहीं ऐसी बात नहीं। वह हम दोनों प्रेमियों पर अमृत की वर्षा कर रहा है। प्रतीत होता है कि आज आपने रात्रि जागरण कर कलधौत चाँदनी में स्नान करने का निश्चय किया है।