Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 59
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/57 रामचंद्र - सत्ता की चमक-दमक, यश का गर्व, वैभव सब क्षणिक हैं; अवश्यमेव विनाश को प्राप्त होंगे। उनमें हर्ष कैसा ? किन्तु आत्मवैभव, स्वानुभूति अपनी है और अखण्ड अविनाशी है। जो किसी भी क्षण, किसी स्थान में हमसे विलग नहीं हो सकती । लक्ष्मण - तुम्हारी विचारधारा अति विलक्षण है बंधु ! हम लोग तो अभावों से भरे हुये हैं। रामचंद्र - प्रत्येक प्राणी में सद्भाव होते हुये भी वह अपने विभावों के कारण वर्तमान में अभाव का ही अनुभव करता है । और कृत्रिम अभाव को कृत्रिम वस्तुओं के संग्रह से भरना चाहता है। जो न वह कभी भर पाता है न ही उनसे तृप्ति होती है। लक्ष्मण – अति उत्कृष्ट स्तर की बातें हैं भ्रात ! ( भरत का प्रवेश, उन्हें देखते ही) साधुवाद भरत ! अयोध्या का राज्य तुम्हें शुभ हो। हमारी अनेकानेक मंगलमय शुभकामनायें स्वीकार करो । भरत - बंधु ! क्या आनन्द के बाहुल्य में भरत और ज्येष्ठ भ्राता के अन्तर का भी तुम्हें विस्मरण हो गया ? लक्ष्मण - ( रुक्षता से) यह तुम जानो । कैकेयी – भरत क्या जाने लक्ष्मण ! यह तो मेरी कुत्सित योजना है। किंचित् भी आभास नहीं है । पता नहीं यह कौन से जन्म की ईर्ष्या अपना विषैला दंश दे गई कि जिसकी ऐंठन में विवेक भी पलायन कर गया । भरत - ( उत्सुकतापूर्वक) वार्त्ता का विषय समझ में नहीं आ रहा। सब की बातें विचित्र सी लग रही हैं। लक्ष्मण - तो क्या तुम्हारी सम्मति नहीं थी भैया भरत ! भरत - किसमें ? दशरथ भरत ! तुम्हारी माँ को राम का राज्याभिषेक रुचिकर नहीं लगा। अस्तु ! तुम राज्य के उत्तराधिकारी बनोगे । -

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