Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 75
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/73 आज ही सहसा तुझे नमक की सुधि आ गई। बस मैं समझ गई कि तुम्हारा उपयोग शिथिल हो गया। अनुमान लगाया कि सम्भव है तुम्हारा ग्रन्थलेखन कार्य समाप्त हो गया हो। पण्डित टोडरमलजी-तुम्हारा अनुमान सत्य निकला माँ ! आज से मेरे उपयोग का दुरुपयोग होने लगा। भोजन के साथ भी समय का नष्ट होना प्रारम्भ हो गया है। मन रूपी कपि को शास्त्ररूपी कल्पवृक्ष पर दौड़ाते रहना ही उचित है। अन्यथा यह अपनी दुष्प्रवृत्ति से नहीं चूकता। (भोजन समाप्त कर अंतर्कक्ष में आ जाते हैं। और तख्त पर लेटकर कविता गुनगुनाने लगते हैं।) मैं हूँ जीवद्रव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरो, लग्यो है अनादितें कलंक कर्ममल को। ताही को निमित्त पाय रागादिक भाव भये, भयो है शरीर को मिलाप जैसे खल को। (पढ़ते-पढ़ते गहरे विचारों में खो जाते हैं) (स्वगत) अभी तक श्रुतज्ञान के अवलंबन से उपयोग दृढ़ रहता था। बारम्बार आत्मा की सुधि आती थी। अपने स्वभाव में रुचि होती थी। उपयोग में परिवर्तन हुआ कि मन दौड़ पड़ा संसार की ओर । डोर ढीली की कि गिर पड़े खाई में। इन्हीं कुसंस्कारों के कारण मैं अनजान पथिक युगयुग से निर्लक्ष्य बढ़ता रहा। सचमुच ह्रदय में कभी शान्ति पाने की सच्ची लालसा नहीं जागी। कल्याण करना है तो अहर्निशि आत्मोन्मुख रहना ही होगा। तभी अनन्त संसार को क्षीण कर........... (घबराये हुये अजबरायजी का प्रवेश) अजबराय - पण्डितजी ! आपने कुछ सुना ? पण्डित टोडरमलजी – (उठकर बैठते हुये शान्ति पूर्वक) बैठिये अजबरायजी ! क्या बात है ? इतने घबराये हुये क्यों हैं ?

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