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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/77 दीवान रतनचंद - पर अब वही महाराज माधवसिंह अविवेक से अंधे हो रहे हैं। क्रोधावेश में वे किसी की कुछ सुनना ही नहीं चाहते।
अजबराय - उस समय उन्होंने जो उद्घोषणा की थी। वह अभी भी मेरे पास हैं। यदि उसे दिखाकर उन्हें अपने वचनों की याद दिलाई जावे तो कैसा रहे ?
दीवान रतनचंद - पढ़ो भाई जरा । कदाचित् कुछ मार्ग निकल आये।
अजबराय - (पत्र पढ़ते हैं) सनद करार मिती मगसिर बदी दूज संवत् 1819 अपरंच हद सरकारी में सरावगी वगैरह जैनधर्म वाला तूं धर्म में चालवा को तकरार छो, सा या को प्राचीन जान ज्यों का त्यों स्थापन करवो फरमायो छै। सो माफिक हुक्म थी हुजूर के लिखा छै। बीसपंथ तेरापंथ परगना में देहरा बनाओ व देव गुरु शास्त्र आगे पूजे छा जी भाँति पूजो। धर्म में कोई तरह की अटकाव न राखे। अर माल-मालियत वगैरह देवरा को जो ले गया होय सा ताकीद कर दिवाय दीज्यो। केसर वगैरह को आगे जहाँ से पावे छा तिठा तूं दिवावो कीज्यो। मिति सदर.....
महाराम - उस समय यह आदेश अविलम्ब पालन किया गया था।
दीवान रतनचंद- क्या बताऊँ बंधुओ! जो महाराज कल तक जैनधर्म की सत्यनिष्ठा को राज्य की आधार शिला मानते थे, आज वे ही विपरीत हो गये हैं। हमें टोडरमलजी का होनेवाला अभाव व्यथित कर रहा है।
महाराम - हम लोग सभी बचपन के साथी हैं भाई ! जिस समय टोडरमलजी सात वर्ष के थे; उस समय अपने गुरु बंशीधरजी का नाम पूछने पर ब्रह्मचारी रायमलजी को इतने गहन गम्भीर आध्यात्मिक रहस्यमय अर्थ बतलाये कि गुरुजी ने उस दिन से अपना गुरुपद बालक टोडरमलजी को सौंप दिया था। अब उन जैसे विद्वान का बिछोह असह्य हो उठेगा।
अजबराय - मालूम होता है यह महान अत्याचार हमें विष के घुट की तरह चुपचाप पी लेना होगा।
श्रीचंद -अब हमें आत्मा के अनन्त रहस्यों से कौन परिचित करायेगा।