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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/80 करुणाई हो उठते हैं और उसे संबोधित करते हैं।)
पण्डित टोडरमलजी - हे गजेन्द्र ! तुम क्यों संकोच कर प्रहार पर प्रहार सह रहे हो ? यदि राजाज्ञा से मुझे दोषी घोषित किया जा चुका है तो तुम कष्ट सहन कर भी कुछ न कर सकोगे ? आज्ञा पालन कर अपनी कर्तव्यनिष्ठा का परिचय दो। व्यर्थ ही तन-मन को कष्ट देने से क्या लाभ ? आत्मा को दुखी मत बनाओ। स्मरण रखो कि बार-बार शरीर का अन्त होने पर भी ज्योति स्वरूप चैतन्य ध्रुव आत्मा अविनाशी रहता है। पौद्गलिक परमाणुओं का परिणमन अपने अनुकूल हो अथवा नहीं भी हो । सर्व द्रव्य स्वतंत्र हैं। बाधा देने की मनोभावना विकारी है, व्यर्थ है। ___ गजेन्द्र ! तुम्हारी वर्तमान अवस्था पराधीन है। स्वयं को पहिचानो। और स्वाधीन बनने का प्रयत्न करो। चैतन्य में रुचि जागृत होने से पराधीनता का स्वयमेव अभाव हो जाएगा। इस समय राजाज्ञा का पालन करना ही उचित है। ___(इतना सुनकर हाथी समदर्शी पण्डित टोडरमलजी के वक्षस्थल पर पैर रख देता है। तत्क्षण उनका प्राणांत हो जाता है। ऐसा प्रतिभासित होता है मानों धरा के मानवों को ज्ञानरूपी प्रकाश देने वाले सूर्य का अस्त होते देख गगन का अंशुमाली भी शोक संतप्त हो ढलते हुये पश्चिम की ओर तीव्र वेग से चला जा रहा है।)
_ (पट्टाक्षेप)
- कौन जल रहा था ? गजकुमार मुनि का उपसर्ग सुनकर एक सज्जन बोल उठे -
कैसी बिडम्बना है - गजकुमार मुनि का सिर जल रहा था और उनका ससुर हँस रहा था। देखी संसार की दशा! ___ तब एक विद्वान ने कहा - मुनिराज तो उस समय में भी समता सुधा का पान कर रहे थे। अपूर्व अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त कर रहे थे। कषाय की भट्टी में तो उनका ससुर जल रहा था। मुनि का शरीर जल रहा था, आत्मा शान्त थी। ससुर का आत्मा जल रहा था, शरीर हँस रहा था। देखा स्वभावदृष्टि का बल!
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