Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 78
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/76 - त्रिलोकचंद - अब क्या किया जाए ? जयपुर में ये कैसा अंधेर हो रहा है ? कुछ ही वर्षों पहिले श्याम तिवारी के कुचक्र से हमारा समाज आतंकित रहा। घोर क्षति भी उठानी पड़ी। अजबराय - अरे ! उसके तो अत्यन्त घृणित और अधम कृत्य थे। उस मदांध ने जैन समाज की धन सम्पति छीन ली। राज्यबल पाकर तरह-तरह के अत्याचार किये। श्रीचंद - उस समय की सुधि आते ही हृदय व्यथित हो उठता है। उसने अपने साम्प्रदायिकता के मद में हमारे मन्दिरों को नष्ट करवा दिया। जिनकी छाया में बैठकर हमें आत्मबोध मिलता है। सांसारिक उलझनों में उलझे हुये हमारे मन मानस को चंद क्षणों के लिये शान्ति प्राप्त होती है। जिन वीतराग प्रभु के सन्निकट हम आत्मनिधि से परिचय प्राप्त करते हैं। जहाँ पर हम मन; वाणी और कर्म को सांसारिक कार्यों से हटाकर आत्म अनुभूति कर परमानन्द का पान करते हैं; उन मंगलमय परमपावन स्थानों को नष्ट भ्रष्ट कर दिया था। दीवान रतनचंद - हमने उस उपद्रव को राजकोप के कारण डेढ़ वर्ष तक सहा। पर अति सर्वत्र वर्जयेत्। श्याम के असीमित अत्याचार और हमारा असीमित धैर्य दोनों ही सीमा पार कर गये थे। तब दृढ़ हो अन्न जल का त्याग कर हमने महाराज से न्याय पूर्ण निर्णय के लिये निवेदन किया था। त्रिलोकचंद - तब महाराज ने श्याम के राजगुरु होने पर भी सच्चा न्याय कर धर्मप्रियता का परिचय दिया था। अजबराय - महाराज के उस समय के वचन मुझे याद हैं कि आप लोगों ने मौन रहकर अन्याय अत्याचार को प्रोत्साहन ही दिया है। उन्हें विश्वास था कि जैन कभी असत्य संभाषण नहीं करते। __ श्रीचंद - जयपुर राज्य में सदा से ही जैनधर्म को राज्याश्रय प्राप्त है। अत्यधिक संख्या में जैनधर्मानुयायी व मन्दिर इसके ज्वलंत प्रमाण हैं।

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