Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 73
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/71 श्रीचंद - अभी आपने कहा कि आत्मा ज्ञान से परिपूर्ण है, तो अज्ञानी बनकर संसार में परिभ्रमण क्यों कर रहा है ? अजबराय -कैसी विचित्रता है ? स्वभाव में निर्मलता है, कर्म कुछ करते नहीं। फिर भटकने का कारण क्या है ? पण्डित टोडरमलजी-बड़ी सुन्दर शंका है बंधु ! दोनों ही नियम यथावत् हैं। आत्मा अपनी भूल से जन्म-मरण कर रहा है। हम सुख चाहते हैं, पर सुख के कारण नहीं अपनाते। बाह्य प्रलोभनों के आकर्षण में सुख खोर्जा करते हैं। सीधा-साधा उदाहरण है – “इच्छित भोजन मिलने में सुख होता है ?" महाराम - क्षणिक सुख तो होता ही है। पण्डित टोडरमलजी- यदि पेट में पीड़ा हो तो क्या वही भोजन सुख प्रदान कर सकेगा ? महाराम-नहीं। पण्डित टोडरमलजी-क्षणिक सुख? महाराम - नहीं, बिल्कुल नहीं। पण्डित टोडरमलजी- तब फिर स्पष्ट है कि जड़ पदार्थों में सुख नहीं; अपने भावों में ही सुख-दुःख है। यदि हम परपदार्थों से मुख मोड़ कर अपना लक्ष्य आत्मस्वभाव की ओर कर लें तो चिरन्तन शाश्वत अलौकिक सुख प्राप्त हो। जहाँ न कोई आशा है न आकांक्षा, चिरतृप्ति, चिरशान्ति ही है। दृश्यांतर स्थान – रसोई घर (टोडरमलजी का निवास स्थान) समय - प्रातःकाल द्वितीय प्रहर (पण्डित टोडरमलजी भोजन कर रहे हैं। उनकी माताजी परोस रही हैं) पण्डित टोडरमलजी-(भोजन करते-कस्ते) माँ ! आज भोजन में कुछ स्वाद नहीं आ रहा, ज्ञात होता है तुम कुछ भूल गई हो।

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