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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/69 श्रीचंद - हाँ, हमें आत्मा के स्वभाव का निर्णय करना होगा। तदनुसार ही हम मार्ग पर चल सकेंगे। ___ पण्डित टोडरमलजी - यह तो सुहागे जैसी स्पष्टता है। यदि अनन्त संसार का अन्त करना है तो हमें पुरुषार्थ पूर्वक जुट जाना है। पूर्ण स्वभाव का लक्ष्य बनाकर तब तक चलें जब तक केन्द्र बिन्दु तक पहुँच न जायें। पूर्णता के लक्ष्य से ही पूर्णता होती है अर्थात् पूर्णता प्राप्त हो सकती है।
गुमानीराम - पिताजी ! मेरी भी शंका का समाधान कर दीजिए। जो वीतरागदेव सर्व विकल्पों से रहित हैं, आकांक्षाओं को जिन्होनें शून्य कर दिया है, जो दुनिया से तो क्या अपने तन से भी ममत्व को गलाकर केवल अपने सच्चिदानन्द आत्मा में आत्मसात् हो चुके हैं, हम उन्हीं को पूज्य मानते हैं न ?
पण्डित टोडरमलजी- हाँ वत्स! इसमें शंका करने जैसी गूढ़ता तो कुछ भी नहीं है। ___ गुमानीराम-तब फिर उस वीतराग की आदर्शरूप मूर्ति को सराग बनाकर क्यों पूजा जाता है ?
पण्डित टोडरमलजी- यह अज्ञानता है पुत्र ! व्यक्ति परम्परागत रुढ़ियों का दास होता है। एक व्यक्ति पारसमणि की खोज में पहाड़ के निकट लौह खण्ड लेकर बैठ गया। सामने सागर लहरा रहा था। एक पत्थर उठाता लोहे से स्पर्श करता और सागर में फेंक देता। यह उसकी आदत पड़ गई। अचानक लौह खण्ड को स्वर्णमय देखकर वह प्रसन्नता से उछल पड़ा। दूसरे ही क्षण उदास हो गया, क्योंकि वह अपनी फेकने की आदत के कारण कठिनता से प्राप्त पारसमणि को भी फेक चुका था। यही आदत हमारी भी है।
श्रीचंद - हाँ, यह दुर्लभ मानव जन्म पाकर भी, हम उसे पारस रत्न को समुद्र में फेकने के सदृश, व्यर्थ ही खो देते हैं। वीतराग प्रभु में भी सरागता की स्थापना कर लेते हैं।
पण्डित टोडरमलजी- हमें प्रत्येक क्रिया पर विचार करना परमावश्यक