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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/70
है । क्रिया के रहस्य को जानकर यथार्थता की कसौटी पर रखना चाहिये। तभी क्रिया कल्याणकारी हो सकती है।
गुमानीराम - तब इन कुप्रथाओं का अन्त होना ही चाहिये । पण्डित टोडरमलजी - आत्मकल्याण की दृष्टि से होना ही चाहिये । गुमानीराम - आप क्यों नहीं समझाते ?
पण्डित टोडरमलजी - पुत्र ! मैंने समझाने की बहुत चेष्टा की। पर लाभ न होता देख माध्यस्थ भाव रख उदासीन हो गया।
गुमानीराम - आप इस दिशा में प्रयास कर चुके ! समाज ने आप जैसे विद्वान की बात नहीं मानी ?
पण्डित टोडरमलजी - इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं वत्स ! प्रथम तो मैं विद्वान नहीं हूँ। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से ज्ञानज्योति किंचित् प्रज्वलित हुई है।
त्रिलोकचंद - पण्डितजी ! आपका क्षयोपशम तीव्र है। आपके परिणामों में भी निर्मलता है। तभी तो आप स्वानुभव करते हुये पंक में पंकज की भाँति निर्लिप्त रहते हैं।
पण्डित टोडरमलजी - बंधुओ ! सबको चिदानन्द घन के अनुभव से सहज आनन्द की वृद्धि ही वांछनीय है। आत्मा तो अनन्तज्ञान वाला है। हम छद्मस्थ हैं। हमारा ज्ञान अंशात्मक है। अनादिकाल से तीर्थंकरों के सदुपदेश यह संसार सुनता आ रहा है; परन्तु सभी तो परमात्मा नहीं बन सके।
गुमानीराम - आप यथार्थ कह रहे हैं पिताश्री ! फिर भी लोग भूल करें तो उन्हें सुधारने का प्रयत्न करना ही चाहिये ।
पण्डित टोडरमलजी - तुम भी कर देखो वत्स ! पुनः पुनः उद्योग करने में हानि ही क्या है ? समाज का उपादान प्रबल होगा तो निमित्त मिलकर कार्यकारी होगा ही । अब हम अपने विषय पर आ जाएँ ।