Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/68 श्रीचंद-ठीक-ठीक, अब समझा पण्डितजी!जो कुछ विचारोगे वही तो होगा। आपने पहिले कितना अच्छा बताया कि सूर्य का प्रकाश उदित रात्रि के अंधकार को दूर नहीं करता, प्रत्युत अंधकार स्वयं दूर हो जाता है। स्वभावविभाव दोनों में उपयोग एक साथ नहीं रह सकता। अजबराय - ऐसी स्थिति कब आ सकती है ? पण्डित टोडरमलजी - जब हम स्वभाव की रुचि करें। चेतन तो राख से ढके अंगारे की तरह है। राख की परत हटाओ ज्योति निखर आयेगी। कच्चे चने का स्वाद अच्छा नहीं लगता। आग में भूनने से उसका यथार्थस्वाद आने लगता है। बतलाइये यह स्वाद कहाँ से आया ? क्या अग्नि से आया ? अजबराय - नहीं, उसी चने में से। टोडरमल - बस इसीप्रकार आत्मा में भी ज्ञानज्योति है, अज्ञान का गुल झड़ाओ ज्ञानज्योति निखर आती है। विषमता हटाकर समता परिणाम लाओ, समदर्शीपन अंगीकार करो। महाराम - तो क्या आपका तात्पर्य यही है कि हिंसा-अहिंसा, हितअहित, धर्म-कुधर्म सबको एक समान माने ? __पण्डित टोडरमलजी- नहीं बंधु ! यह तो अविवेकपना हुआ। विवेक पूर्वक वस्तु स्वरूप को जैसा का तैसा जाने और माने वही सच्चा समदर्शी है। समदर्शी व्यक्ति पदार्थों के प्रति ममत्वभाव या इष्ट-अनिष्ट की कल्पना नहीं करता, वह उनमें तादाम्यवृत्ति भी नहीं करता। महाराम - क्या करें? अल्पबुद्धि होने से यह बात समझ में नहीं आती। पण्डित टोडरमलजी-समझ में नहीं आती ! बस यही शल्य बाधक है। सर्वज्ञ देव ने प्रत्येक आत्मा के प्रजातंत्र की उद्घोषणा की है। सब आत्माओं में अनन्त-दर्शन-ज्ञान शक्ति विद्यमान है। फिर भी कोई इसे ज्ञानस्वरूप न समझे यह तो महान आश्चर्यजनक बात है। जो कि गर्दभ के सींग सदृश असम्भव और अनहोनी है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84