Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 68
________________ ___ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/66 सम्बोधित किया है। प्रत्येक आत्मा का कर्त्तव्य है कि वह स्वयं को पहिचानने का प्रयत्न करे। अपनी ही श्रद्धा कार्यकारी है। अतः बाह्य पदार्थों से अपनी आश्रय बुद्धि हटाकर आत्मचिंतन, आत्मानुभवन में लगाना चाहिये। निरन्तर रुचि एवं अभ्यास से हम स्वयं को जानने में समर्थ हो सकेंगे। राजबराय - पण्डितजी ! मोहकर्म बड़ा प्रबल है। उसी से हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं। रतनचंद-हाँ भाई, इसी के कारण आत्मा अपने को भूलकर, धन-जनशरीर आदि पर में सुख-दुख मान बैठता है। पण्डित टोडरमलजी- नहीं बन्धुओ! ऐसी बात नहीं है। यह जीव भेदविज्ञान के द्वारा ही आत्मा के भिन्नत्व का अनुभव कर सकता है; किन्तु पराश्रित दृष्टि के कारण ही संसारी प्राणी विकार रूप हो रहे हैं। त्रिलोकचंद-पण्डितजी ! यह श्रद्धा तो निरन्तर सुनने-जानने से ही जगेगी कि अपनी आत्मा पर से भिन्न है। पर अभी तो सामग्री के संयोग-वियोग में सुख-दुःख होता ही है अर्थात् सामग्री निमित्त रूप है। श्रीचंद - हाँ, हमें अनुकूल सामग्री प्राप्त हो तो अवश्यमेव बहुत धर्म साधन कर सकते हैं। कषायें भी मन्द हो जाती हैं। पण्डित टोडरमलजी- बंधु ! यही तो मूल में भूल है। हम बाह्य पदार्थों में ही सुख-दुःख खोजते रहते हैं। सच मानो तो हमने अपने आपको पहिचाना ही नहीं है। हम स्वाधीन लक्ष्य को भूलकर पराश्रय में सुख-दुःख मान रहे हैं। यह कितनी मिथ्या मान्यता है। एक ओर परिपूर्ण स्व और दूसरी ओर सब पर, इसप्रकार भेद विज्ञान ही दो टूक स्पष्ट बताता है। तनिक भी लाग-लपेट नहीं। त्रिलोकचंद-पण्डितजी ! तब यह बतलायें कि पदार्थों के संयोग-वियोग में हर्ष-विषाद क्यों होता है ? पण्डित टोडरमलजी-आपकी शंका उचित है पाटनीजी । पदार्थ हर्ष

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