Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 66
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/64 गये। तब चलो आयुष्मन् ! मेरे वत्स ! चलो। लक्ष्मण - माँ सदृश वत्सला भाभी का भागीदार कैसा ? लक्ष्मण अपनी भाभी के वात्सल्य का अधिकारी है भाभी! रामचंद्र-क्यों नहीं, मानव मात्र पारस्परिक स्नेह का अधिकारी है। यदि मानव समस्त प्राणी जगत से प्रेम संबंध स्थापित कर ले तो विद्वेष का आविर्भाव ही समाप्त हो जाये तथा आंतरिक नैसर्गिक निश्छल मृदुनेह की सुदृढ़ डोर से आखल विश्व ऐक्य सूत्र में बँध जाये। तब समता का अपूर्व साम्राज्य प्रसरित Tan हो मानव को मुक्ति की नई दिशा सुलभ कर सके। भरत – (विहल हो) भैया............. रामचंद्र-(पीठ पर हाथ फेरकर समझाते हुये) भरत!आनन्दपूर्वक आगत को स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है।साधक की यही कसौटी है।अच्छा हम चल दिये। सीते ! चलो......लक्ष्मण ! चलो बंधु ! (परस्पर अभिवादन कर राम, सीता व लक्ष्मण चल पड़ते हैं। सबके नयन सजल हैं।) ' (धीरे-धीरेपरदा गिरता है)

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