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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/63 सीता-(लक्ष्मण से) ऐसा ही प्रतीत हो रहा है। (राम से) आर्यपुत्र! चलें, विलंब हो रहा है।
रामचंद्र - तुम कहाँ चलोगी सीते !
सीता – (हँसकर) यह भी बतलाना पड़ेगा कि व्यक्ति से भिन्न क्या परछाई भी एकाकी रह पाई है देव !
लक्ष्मण - भाभी ! वन के कष्टों को कैसे सह सकोगी ?
सीता- (शीघ्रता से) जैसे पुरुष सहा करते हैं। यूँ तो कष्ट आर्यपुत्र को तो सकता है, परन्तु नारी तो पति के चरणों में अपूर्वस्वर्गीय सुख का ही आस्वादन करती है। (लक्ष्मण से) पर तुम्हारा जाना सचमुच ही उचित नहीं है लक्ष्मण ! क्यों व्यर्थ ही भगिनी उर्मिला को विरहिणी बना वैरागी वनवासी बन रहे हो ?
लक्ष्मण - भाभी ! मुझे क्यों बलात् वैरागी बना रही हो ? क्या तन से पृथक् होकर उसका अंग जीवित रह सका है ? मैं तो भ्रातृप्रेम से विभोर हो उसमें पल-पल डूबा रहना चाहता हूँ। क्या आप अपने भाग में से मुझे किंचित् सेवा का अवसर प्रदान न कर सकोगी ?
सीता - भ्रातृप्रेम में बाधा भला मैं क्यों दूँ ? परन्तु भगिनी उर्मिला की ओर विवश दृष्टि जाती ही है। नारी के मन को नारी ही जान पाती है। तुम पुरुष उस व्यथा को क्या जानो।
लक्ष्मण - (हँसकर) हाँ पुरुष तो पुरुष होते ही हैं। आपका उलाहना भी अतिप्रिय लग रहा है। पर क्या करूँ ? मन की तुला पर भ्रातृप्रेम का पलड़ा भारी पड़ जाता है। भाभी ! मैं अग्रज राम से विलग नहीं हो सकता।
राम - लक्ष्मण ! यह कर्त्तव्य नहीं तुम्हारा।
लक्ष्मण - कर्त्तव्य की परिभाषा से मैं अनभिज्ञ हूँ बंधु ! न बुद्धि अभी इतनी परिपक्व हुई है कि जानने के लिये उस पर अनावश्यक बोझ डाला जाये। प्रयोजन तो मुझे आपके चरणों से है। -.....
सीता - (मुस्कुराते हुये) सच!...............अर्थात् मेरे भागीदार बन