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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/62 रामचंद्र - अवश्यमेव कहो बंधु ! कहो हम भी उसे सहर्ष मानेंगे।
भरत - वह यह कि राज्य तुम्हारा है, तुम्हारा ही रहेगा। मेरे पास वह केवल धरोहर के रूप में सुरक्षित रहेगा। जो कि तुम्हारे आगमन पर तुम्हें सौंप मैं निद्वंद्व हो आत्मसाम्राज्य में विचरूँगा।
रामचंद्र-धन्य है भरत देखा माँ, मँझली माँ के प्रतिबिम्ब को। कितना सरल, कितना स्वच्छ निर्मल प्रतिभावान व्यक्तित्व !
कौशल्या- मुझे तुम सब पर गर्व है। भगिनी कैकेयी ! तुमने भरत सा महान पुत्र प्रसव कर अपनी कोख को सार्थक कर लिया।
कैकेयी - जीजी ! मैं लज्जित हूँ अपने कृत्य पर। तुमने सचमुच ही विलक्षण क्षमा धारण कर वसुन्धरा सी महान क्षमता का परिचय दिया है। राम उसी का प्रतिबिम्ब है।
लक्ष्मण - मेरे विचार में तो सबने जो खोया है; उससे कहीं अधिक अमूल्य दुर्लभ को पा भी लिया है।
(इसी समय संवाद पाकर सीता, महारानी सुमित्रा शत्रुघ्न आदि परिजन एकत्रित हो जाते हैं।)
भरत - यही बात है बंधु ! अपूर्व आनन्द हाथ आया है।
रामचंद्र - (माता-पिता के चरण छूते हैं) आशीर्वाद दें तात् ! मात ! प्रस्थान की आज्ञा दें।
(सबकी आँखें जलमग्न हो जाती हैं। लक्ष्मण और सीता भी माता-पिता के चरण छूते हैं। राम के चरण स्पर्श को भरत झुकते हैं, राम भरत को गले लगा लेते हैं। तत्पश्चात् राम, लक्ष्मण की ओर मुड़ते हैं।)
लक्ष्मण - प्रिय बंधु ! मैं तो आपके साथ हूँ। रामचंद्र - कहाँ ? लक्ष्मण मैं वन जा रहा हूँ। तुम यहीं रहो।
लक्ष्मण-क्या आप अकेले ही अकेले आनन्द के साम्राज्य का उपभोग करेंगे?