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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/58 भरत - (विषाद युक्तमुद्रा में ) मैं ! पूज्य जनों के रहते यह गुरुतर भार मुझसे न सम्हेंलेगा। मैं निर्भार रहूँ, इसमें आपको आपत्ति क्या है माँ ?
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कैकेयी - दुरुह भूल हो गई वत्स ! जो जन्म-जन्मान्तरों तक नहीं मिट सकती। मैं समझती थी भरत हर्षित होगा, पर मेरी आशा के विपरीत हुआ।
भरत - तो माँ ! अपने भरत को अब तक नहीं पहिचान पाईं। ऐसा कर तुमने कौन से जन्म का प्रतिशोध लिया है माँ !
रामचंद्र - विचार कर बोलो भरत ! पागल न बनो । पुरुष होकर कायरों की भाँति विफर नहीं हुआ करते ।
भरत - पुरुषत्व के आवरण में क्या अच्छा बुरा सब छिपा लिया जाता है ? यह मिथ्या है, पाखण्ड है। अनुचित आदेशों को कर्तव्य मान उन पर नहीं चला जा सकता। ज्येष्ठ बंधु ! तुम्हीं बताओ, क्या थोथे अनुशासन के नाम पर उठते व्यक्तित्व को सत्ता की पाषाण शिला के नीचे दबाकर उसे घुटने दूँ ?
रामचंद्र - यह भ्रम है बंधु ! स्वतन्त्र व्यक्तित्व का विकास रोका नहीं जा सकता। वह स्वयं अभिव्यक्त होता है। जो कार्य करने पड़ते हैं; उन्हें निर्लिप्त भाव से प्रेम और विवेक पूर्वक करते जाओ। विलंब न करो । राज्याभिषेक की मंगल बेला नटले । शीघ्रता करो। हम सब एक हैं। उठो - शुभस्य शीघ्रं ।
भरत - यह आवश्यक नहीं है बंधु ! कि बड़ों की प्रत्येक आज्ञा का आँख मूँद कर पालन किया जाए। जागा हुआ विवेक सुलाया नहीं जा सकता। मैं जड़ नहीं हूँ भ्रात! मेरा मन मस्तिष्क सक्रिय है। उसे कैसे भुलावे में डाल दूँ ? शोषणवृत्ति मैं नहीं अपना सकूँगा ।
रामचंद्र - (हँसकर स्नेह पूर्वक ) ओह ! भाषण देने का भी अच्छा अभ्यास हो गया है तुम्हें। यदि मैं कहूँ कि तुम स्वतन्त्र नहीं, स्वच्छंद हो गये हो भरत! तो अत्युक्ति न होगी ।
भरत - यूँ हँसकर विनोद में टाला नहीं जा सकता; हाँ, आप जो भी दोष लगायें मुझे सब स्वीकार हैं। पर राज्य आप ही करेंगे। मुझे क्या इतना पतित स्वार्थी समझ रहे हैं ?