Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 58
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/56 परिचित हूँ। हो सकता है मेरे यहाँ रहने पर भरत राज्य करने में अपनी असमर्थता बतलाकर मुझसे बार-बार अनुरोध करे अथवा यह भी असंभव नहीं कि प्रजा भरत का अनुशासन मानना अस्वीकार कर दे। प्रत्येक अवस्था में मेरा यहाँ न रहना ही भरत और मेरे दोनों के हित में है। कौशल्या- यह कैसा निर्णय है राम ! रामचंद्र - माँ ! इस परिस्थिति में यही उचित है। कैकेयी- नहीं ! इस परिस्थिति में आमूलचूल परिवर्तन अत्यावश्यक है। राम का ही राज्याभिषेक होगा। मैं अपने पूर्वकथित वचनों का स्वयं खण्डन करती हूँ। लक्ष्मण - विचार शुभ और सुखद हैं। मँझली माँ को समय रहते सुबुद्धि आ गई। रामचंद्र - लक्ष्मण ! तुम किसी विषय का सर्वांग निरीक्षण करने के पूर्व शीघ्र ही निर्णय ले लेते हो। यह उचित नहीं। अधिकांशतः ऐसे निर्णय दोषकारक होते हैं। लक्ष्मण - बंधु ! तुम जैसी धीरता मैं कहाँ से लाऊँ ? तुम न जाने किस साँचे में ढले हो। रामचंद्र - (कैकेयी से) माँ ! मुख से जो वचन एक बार निःसृत हो चुके हैं, वे अमिट हैं, खण्डित नहीं हो सकते। यही नियति का अटल विधान था। वह प्राणियों से नित्य ही क्रीड़ा किया करती है। लक्ष्मण-(आँखें फाड़कर) तुम क्या अभी भी अपने निश्चय पर दृढ़ हो? रामचंद्र – (हँसते हुये) हट जाऊँ ? लक्ष्मण - धन्य है बंधु ! तुम्हारे चरणों की धूल भी बन सका तो अपना सौभाग्य समझूगा । तुम्हारी समदृष्टि को क्या कहूँ। राज्याभिषेक होना था तब हर्ष से पुलकित नहीं हुये। वनवास का निश्चय किया तब भी मुख पर विषाद की सूक्ष्म रेखा भी नहीं आई।

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