Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 61
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/59 रामचंद्र - अपने अनूठे अपूर्व पवित्र स्नेह की पावन गंगा में कहीं स्वार्थ की गंध भी आ सकती है ? वह तो उछलती कूदती उमंग में बहती ही जा रही है। (स्नेह पूर्वक हाथ पकड़कर) भरत ! मेरा अनुरोध न मानोगे बंधु ! तुम्हें मेरे वचनों की रक्षार्थ अयोध्या का सिंहासन सम्हालना ही होगा । भरत - ( दुख से विह्वल हो) बंधु ! ये कैसे अनुरोध का पालन करवा रहे हो । मेरी ओर देखो भ्रात ! क्या मैं इतना कठोर दण्ड सह सकूँगा ? रामचंद्र - सहना होगा मेरे प्रिय ! सब कार्य हमारी इच्छा के अनुकूल नहीं हुआ करते । इच्छा के विरुद्ध भी कुछ कार्य हम से नियति करवाती है। विचार करो, क्या रोगी कड़वी औषधि भक्षण करना चाहता है ? क्या अनायास आये हुये संकट हम नहीं झेलते ? बंधु ! हमें वर्तमान को बिना झिझक स्वीकार करना ही उचित है। यह सत्य और तथ्य भी है कि जिस वस्तु से हम जितनी दूर भागते हैं; वह उतनी ही शीघ्रता से हमारे निकट आती है। भरत - मुझे अत्यधिक कठोरता की कसौटी पर कस रहे हो बंधु ! रामचंद्र - भूल गये भरत । कठिनता और सरलता अपने मन में है, बाहर नहीं । भरत - क्या सोचा था क्या हो गया । एकाकी रहकर कहाँ आत्मरहस्य की खोज में जीवन समर्पित करना चाहता था और कहाँ यह राज्य की स्वर्ण श्रृंखला में जकड़ गया । .( कैकेयी से ) माँ ! तुमने यह कैसा भीषण दुस्साहस कर डाला। अपने ही बालक पर इतना अन्याय ! माँ तुमने दिठौना लगाते मेरा पूरा मुँह ही काला कर दिया । इस कालिमा को धोने के लिये जल कहाँ पाऊँगा ? रामचंद्र - शान्त होओ भरत ! यह प्रलाप तुम्हें शोभा नहीं देता । आज तुम्हारी विनम्रता कहाँ भाग गई ? जितना ऊँचा उठना चाहते हो; उतने ही नीचे झुकना पड़ेगा बंधु ! आकाश की ओर प्रेरित होने वाले वृक्ष गहरे पाताल से जीवन रस लेकर ही ऊँचे उठ पाते हैं। माँ कोई भी कैसी क्यों न हो, माँ है और महान है।

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