Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 57
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/55 रामचंद्र- (शान्तिपूर्वक) लक्ष्मण ! शान्तिपूर्वक बात करो। यह रण क्षेत्र थोड़े ही है। लक्ष्मण - मैं पूछता हूँ भरत का अभिषेक क्यों होगा, तुम्हारा क्यों नहीं? रामचंद्र – यही प्रश्न मेरा भी है बंधु ! राम का ही क्यों ? भरत का क्यों नहीं हो सकता ? वह भी हमारा भ्रात है। फिर ये विभिन्नता क्यों ? लक्ष्मण - आप ज्येष्ठ हैं और ज्येष्ठ पुत्र ही उत्तराधिकारी होता है। रामचंद्र-आयु में ज्येष्ठता कोई बाधा नहीं है लक्ष्मण! भरत भी सर्वगुण सम्पन्न है। हम परस्पर प्रतिस्पर्धी नहीं है। अनूठा और अपूर्व है हमारा प्रेम। लक्ष्मण - बंधु ! तुमने सहज सरल हो जो स्वीकार कर लिया है, क्या प्रजा भी उसे मान्यता देगी ? रामचंद्र - उसे भी मानना होगा। भरत राज्य करेंगे और राम चौदह वर्ष के लिये वनवास ग्रहण करने का प्रण करता है। 'न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी'। (सब स्तम्भित हो जाते हैं) . कैकेयी- (सहसा मौन तोड़कर) यह कैसा प्रण मेरे लाल ! मैंने तो केवल भरत को राजा बनाने की अभिलाषा प्रकट की है, तुम्हें वन भेजने की नहीं। यह क्रूरता मैं स्वपन में भी नहीं विचार सकूँगी। तुम वन क्यों जाओगे? आह ! यह मैंने कैसा प्रण कर डाला। (दुखित हो) तुम्ही राज्य करो राम ! रामचंद्र - मँझली माँ ! तुम ऐसी विकल क्यों हो रही हो ? लक्ष्मण - (व्यंग के स्वर में) मँझली माँ ने क्रूरता का नाटक खेला है बंधुवर ! रामचंद्र- (डाँटते हुये) लक्ष्मण! तुम बोलना सीखो प्रिय बंधु! दुर्लभतम अपनी जिह्वा का इतना दुरुपयोग नहीं करते। . दशरथ - भले ही भरत को राज्य दे दो, पर तुम वन मत जाओ राम ! क्या अयोध्या में तुम्हें रहने का भी अधिकार नहीं ? . रामचंद्र- ऐसी बात नहीं है तात् ! मैं भरत के साधु-स्वभाव से भलीभाँति

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