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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/53 पर आघात पहुँचा है। आहत व्यक्ति के उलाहने क्षम्य हैं। आप निश्चित समझें कि मैं जिस पथ पर अग्रसर हो चुकी हूँ, उससे अब लौटना असंभव है।
दशरथ - छिः हमें ज्ञात नहीं था कि तुम्हारे सौन्दर्य, तुम्हारी वीरता में ईर्ष्या का क्षुद्र कीट भी पनप रहा है। जो अब वंशबेल को कुतरने के लिये प्रस्तुत है। अभी तक तुम्हारा प्रेम मात्र प्रवंचना थी। विमाता का सच्चा रूप तो अब निखरा है।
कैकेयी - मैं जानना चाहती हूँ कि क्या भरत वंशबेल से भिन्न है ? दशरथ - भिन्न नहीं है, पर तुम्हारा कार्य अवश्य अविवेक पूर्ण है।
(कौशल्या का प्रवेश) कौशल्या-कैकेयी ! मैं कब से तुम्हें खोज रही हूँ। चलो शीघ्रता करो। पूजन का समय निकला जा रहा है। राम आदि सभी आते होंगे। (कैकेयी को रूठा देखकर) क्या बात है भगिनी ! स्वस्थ तो हो ?........ मौन क्यों हो ? (घबराकर) आर्य पुत्र ! आप ही बतायें न ! (दशरथ की आँखों से आँसू टपक पड़ते हैं।) इस मंगल बेला में आँसू ! कैकेयी ! तुम्हीं कहो...... क्या राम का अभिषेक आँसुओं से होगा?
दशरथ - (गहरी सांस लेकर) राम का अभिषेक नहीं होगा। कौशल्या - (अप्रतिभ हो) क्यों ? दशरथ - (व्यंग से) तुम्हारी प्यारी भगिनी कैकेयी का आदेश है।
कौशल्या- (आश्वस्त हो) तब निर्णय समझ बूझ कर ही हुआ होगा। (कैकेयी से अत्यन्त स्नेह पूर्वक) अनायास ऐसा क्या हो गया भगिनी ! मुझे न बताओगी ? तुम जानती हो मैं तुम्हारी तरह दूरदर्शी नहीं हूँ। तुम्हारी सूक्ष्म प्रखर बुद्धि गहराई तक जाकर अन्वेषण करती है। .
दशरथ-(व्यंगात्मक स्वर में) बुद्धि की प्रखरता ने ही तो नव अनुसंधान किया है। अभिषेक राम का नहीं भरत का होगा। अब सुयोग्यज्येष्ठ पुत्र के होते हुये भी इच्छित पुत्र ही उत्तराधिकारी माना जाएगा। सुन रही हो न कौशल्या !