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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/51 दशरथ - तो क्या हमीं नियम गढ़े और हमीं तोड़े ? सुचारू रूप से जीवन जीने के लिये प्रबुद्ध मानवों ने व्यावहारिकता निर्वाह हेतु यह नियम बनाये हैं। उन पर चलना हमारा कर्तव्य है। न चलने पर मानव समाज क्षुब्ध होगा, अराजकता फैलेगी।
कैकेयी - तब क्या समस्त मानव समाज का दायित्व आप पर निर्भर है ? नहीं, हमें जो प्रिय हो वही करणीय है।
दशरथ - ऐसा नहीं है कैकेयी ! कि जो प्रिय लगे वही करो, किन्तु कार्य में विवेक की जागृति अनिवार्य है। बिना विवेक के मात्र वासना से प्रेरित जीवन घृणित है। श्रेय सहित प्रेय को ही हम अंगीकार कर सकते हैं।
कैकेयी - तब मैं यही समयूँ कि आप वचनबद्ध नहीं है ?
दशरथ-(समझाते हुये) सुनो तो प्रिये! आज तुम्हें क्या हो गया है ? तुम्ही ने राम के राज्याभिषेक की सम्मति दी और तुम्हीं आज विरुद्ध हो गई ?
कैकेयी- हाँ देव ! ऐसा ही समझें।
दशरथ - देवी ! जन साधारण से ऊपर उठकर राजा का स्थान है। राजा प्रजा का प्रतिपालक होता है। यदि वही न्यायोचित मार्ग को छोड़ लोकनिंद्य मार्ग का अवलंबन ले तो क्या वह अनेकानेक दोषों का भागी नहीं होगा ?
कैकेयी - वाग्जाल में कैकेयी नहीं आ सकती नाथ ! दशरथ - सत्य तुम्हें वाग्जाल-सा दिखता है। आश्चर्य है ! कैकेयी-आप स्पष्टतः अस्वीकार कर दें। मैं तर्क नहीं करना चाहूँगी।
दशरथ-क्या हम इसका कारण जान सकते हैं देवी! तुम्हें राम और भरत में विभेद क्यों कर हुआ ? तुम्हें तो राम बड़ा प्यारा लगता था।
कैकेयी - प्यारा तो मुझे अभी भी लगता है आर्यपुत्र ! उन दोनों में मुझे भेद नहीं, भेद तो आप कर रहे हैं।
दशरथ-(साश्चर्य) हम!