Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/50 कैकेयी - कहूँ कैसे ? शंका निर्मूल भी तो नहीं है। दशरथ - कहने के पश्चात् ही शंका निर्मूल हो सकेगी देवी ! हम सुनने के लिये आतुर हैं। तुम निःसंकोच कहो। . कैकेयी-विवाह के पश्चात् मेरी रथचातुरी से प्रसन्न हो आपने क्या कहा था, स्मरण है ? दशरथ – (हँसकर) अच्छी तरह प्रिये ! हमने तुम्हारी इच्छित कामना पूर्ण करने हेतु वचन दिया था। कैकेयी - हे राजन् ! अब समय आ चुका है। दशरथ -शुभ है प्रिये ! तुम अपने अभीष्ट से हमें परिचित कराओ। राम के राज्याभिषेक के साथ ही हम तुम्हारे ऋण से भी उऋण हो अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जायेंगे। तुम्हारा विचार अनुकूल है। कैकेयी - आप वचन निर्वाह कर सकेंगे? दशरथ - तुम इतनी शंकास्पद क्यों हो रही हो ? वचन निर्वाहन न कर मानवों के पारस्परिक विश्वास को समाप्त करने में क्या हम ही अग्रणी बनेंगे? नहीं नहीं यह असंभव है। हम ऐसा जघन्यतम घृणित अपराध कर मानवता को आघात नहीं देंगे। कैकेयी-तब वचन दें कि राज्य का उत्तराधिकारी भरत को घोषित किया जाय। आज भरत का अभिषेक हो। दशरथ-(अवाक् हो) यह हम क्या सुन रहे है कैकेयी ! क्या सचमुच यह तुम्हीं बोल रही हो? कैकेयी- (अत्यधिक शान्ति से) मैंने देव से प्रथम ही निवेदन किया था। मेरी शंका प्रमाणित हुई। दशरथ - केवल हम अपनी क्षमता के प्रदर्शन हेतु कर्त्तव्य से गिरकर दूसरों का अधिकार नष्ट कर दें। ये कैसा न्याय ? कैकेयी- कर्त्तव्य और न्याय की परिभाषा हमीं मानवों द्वारा निर्मित है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84