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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/49
मन का शूल निकालकर ही चैन लूँगी। एक पिता के चारों पुत्र होने के नाते राज्य पर सबका समान अधिकार है; परन्तु भरत ने मेरे अनु के अत्यन्त विपरीत ही उत्तर दिया ।...... . आह ! पुत्र की आकांक्षा, मैं माँ होकर भी नहीं जान सकी। मुझसे वह कह तो सकता था । कदाचित् संकोचवश उसकी वाणी स्वयं प्रतिबन्धित हो गई हो । . भरत राम से हीन है ?........
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नहीं वह भी सर्वगुण सम्पन्न है । . . पर..... न्यायोचित राम का अधिकार है । भरत को घर में रोक रखने का एक मात्र उपाय उसे राज्यारूढ़ कर देना है अन्यथा वह गृह त्याग कर ही देगा । असमय में ही मुझसे उसकी विरक्ति नहीं देखी जाती । वन पुष्प की भाँति उसके उपभोग से दुनिया वंचित रह जाए। यह कैसे हो सकता है ? मैं अपने लाल को वनवासी नहीं देख सकती। मैं उसे कैसे भी रोकूँगी । चाहे मुझे अपनी मर्यादाएँ ही क्यों न तोड़नी पड़ें, अपने पवित्र वात्सल्य का विसर्जन करना पड़े । पुत्र की ममता के समक्ष अन्य सब नगण्य है। खिला हुआ कमल असमय ही मुरझा जाये । यह कैसे हो सकता है ? ( महाराज दशरथ का प्रवेश)
दशरथ - शुभे !
कैकेयी - ( उदास मन ) आर्य पुत्र ! मैं आपकी ही राह जोह रही थी । विराजें देव !
दशरथ - (पीठिका पर बैठ कर ) इसीलिये हम आ गये देवी ! खिन्न मन क्यों हो ? स्वस्थ तो हो न ?
कैकेयी - ( मौन है)
दशरथ - तुम्हारा मौन ! यह गम्भीरता असह्य हो रहीं है । भविष्य की आशंका से हम शंकित हो उठे हैं। कहो सब कुशल तो है ?
कैकेयी - कैसे कहूँ देव ! मुझे संशय है कि मेरा अभीष्ट सुनने की भी आप में पर्याप्त क्षमता है... ?
दशरथ - ओह ! तुम हमारे पौरुष को चुनौती दे रही हो ? हमें स्वीकार शुभे। हम अवश्य सुनना चाहेंगे। तुम कह सकती हो।