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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/54 कौशल्या - (अशान्त हो परन्तु तुरन्त सावधान हो) सुन रही हूँ।..... क्या यह सत्य है भगिनी !......सहसा तुम्हें अपने प्यारे राम से विरक्ति कैसे हो गई ? (चंद क्षण पश्चात् मन में उठते हुये वेग को शमन कर सहज भाव से) आर्यपुत्र ! उठें, यह श्मशान सी नीरव शान्ति मैं सहन नहीं कर पा रही। भरत का ही अभिषेक होगा। जैसा राम वैसा भरत। उठो मेरी भगिनी ! उठो ! राज्याभिषेक का मंगल मुहूर्त निकलने न पाये।
(रामचंद्र व लक्ष्मण का आगमन) लक्ष्मण - (प्रवेश करते ही) लो यहाँ बड़ी माँ मंझली माँ ऐसे विश्राम कर रही हैं; जैसे सब कार्य समाप्त हो गया हो।
रामचंद्र - मँझली माँ ! आशीर्वाद लेने हम सब आ गये।
दशरथ - (विलख कर करुण स्वर से) तुम्हारी मँझली माँ के भण्डार में आशीर्वाद चुक चुका है राम ! अब वे केवल अभिशाप ही दे सकेंगी।
कौशल्या-छि: कैसी बातें कर रहे हैं आप आर्यपुत्र ! ऐसा अनर्थ कभी हुआ है ? कैकेयी पर यह दोषारोपण उचित नहीं है।
रामचंद्र - क्या बात है माँ ! यहाँ सर्वत्र विषाद ही विषाद दिख रहा है। तात् ! आपकी आँखें सजल क्यों हैं ? कौन सा कष्ट आ पड़ा है ?
दशरथ - क्या कहें राम ! कौन जाने दुर्भाग्य कहाँ बैठा इठला रहा था।
कौशल्या -- वीरता कभी जलधार नहीं बहाती आर्यपुत्र ! अनुकूलताप्रतिकूलता उसके धैर्य में बाधा नहीं बन सकती।
दशरथ- यह क्यों भूल जाती हो देवी कि हम भी एक मानव हैं। हमारा भी छोटा सा हृदय है। उसमें कहीं ममता भी दुबकी बैठी है।
रामचंद्र - माँ ! चर्चा कुछ भी समझ में नहीं आ रही। तुम्हीं बताओ! नहीं नहीं मँझली माँ से सुनूँगा, वे अच्छी तरह बतला सकेंगी।
कौशल्या-बात कुछ नहीं है आयुष्मन् ! राज्याभिषेक भरत का होगा। लक्ष्मण - (क्रोधित हो) क्यों होगा भरत का ?