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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/27 धनदत्त – बेटी, मैं वचन देता हूँ। तेरा यदि दुष्कर अपराध भी होगा तो उसे मैं सच्चे ह्रदय से क्षमा कर दूंगा। आश्वत होकर कहो।
मनोरमा - मैं वैजयन्ती नगर निवासी एक प्रतिष्ठित कुल की पुत्रवधू हूँ। मेरे पति व्यापार हेतु परदेश चले गये। पश्चात् किसी की मिथ्या बातों में आकर यथार्थ सत्य तथ्य जाने बिना सासूजी ने मुझे घर से निकालकर यहाँ भयंकर वन में छुड़बा दिया। (दुःखित होकर) एक दिन एक राजकुमार आनन्द वनक्रीड़ा के लिये आया। वह मुझे धर्मबहिन बना मेरी रक्षा का वचन दे मुझे अपने घर ले गया। शीघ्र हो उसका असली रूप प्रगट हुआ। उस नरराक्षस ने घृणित अत्याचार करना चाहा। भाग्यवश उस समय एक देव ने उसे प्रताड़ित कर मेरी रक्षा की। राजकुमार ने क्षमा मांगकर मुझे वहीं रखना चाहा पर मुझे वन में रहना ही यथेष्ठ था। अस्तु, तब से मैं यही हूँ।
धनदत्त – बेटी ! तुम पर सचमुच घोर संकट आया। आश्चर्य तो इस बात का है कि नारी ही नारी जाति पर अत्याचार कर बैठती है। चलो बेटी, मेरे यहाँ चलो। तुम्हें और भी बहिनें मिलेंगी। वहाँ दिन सुखपूर्वक कटेंगे। शनैः शनैः तुम्हारे पति के आगमन की जानकारी प्राप्त हो जायगी, तब कुछ निष्कर्ष भी निकल सकेगा। ___मनोरमा - क्षमा करें। अपने पूर्वकृत कर्मों का दुष्फल भुगतने के लिये यही स्थान उपयुक्त है।
धनदत्त - तुम्हें मेरे यहाँ चलने में कौनसी आपत्ति है ? क्या मुझ पर विश्वास नहीं ? सभी मनुष्य एक से नहीं होते। ___ मनोरमा - (स्वगत) मन में आता है कि स्वयं को प्रगट कर दूं। कह दूं कि आप मेरे मामा हैं। मैं आपके प्रति ऐसी शंका की कल्पना भी नहीं कर सकती। (पर ऐसा कहना जैसे उसकी सामर्थ्य के बाहर है। केवल इतना ही कह पाती है प्रगट में) नहीं ऐसा न कहिये। आप तो मेरे पिता तुल्य है, आप पर मेरे हृदय में शंका उठना ही असम्भव है।
धनदत्त - तब फिर चलो। हाँ, एक बात तुम्हें और बता दूँ। मेरी भानजी