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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/45 कैकेयी - दुनियाँ से हमें क्या प्रयोजन ? दुनियाँ के मानने न मानने पर हमारे अपनत्व में अन्तर ही क्या आता है ?
मंथरा - सो तुम जानो मंझली रानी ! मुझे क्या ? मैं तो तुम्हारे भले की कह रही थी। तुम्हारा सरल ह्रदय इन छलपूर्ण बातों को नहीं जानता।
(मंथरा का प्रस्थान । कैकेयी चिन्तित हो उठती है। फिर विचार मग्न हो अतीत में खो जाती है। उसे राम के बचपन की बातें याद आने लगती है। उसके कानों में वर्षों पूर्व के शब्द गूंजने लगते हैं।)
नेपथ्य सेवार्तालाप (राम रो रहा है। कौशल्या व्यग्र हो शिशु राम को लेकर आती है।) कौशल्या- कैकेयी ! (राम रो रहा है) कैकेयी ! कैकेयी........ कैकेयी – (हँसकर) क्या है जीजी ! मेरे बेटे को क्यों रुला रही हैं ?
कौशल्या - ओह ! मैं रुला रही हूँ ? क्या कहूँ, तुम्हारा बेटा मुझे सोने नहीं देता। देखो मेरी आँखे मुँदी जाती हैं और ये है कि तुम्हारे कक्ष की ओर ही रो-रोकर संकेत कर रहा है।
कैकेयी - (राम को गोद में लेकर) लो जीजी ! चुप तो हो गया हमारा राम।
कौशल्या - बड़ा सीधा है न ! कौन जाने रातभर तुम्हारे ही स्वप्न देखा करता है। तुम्हीं तो हो उसकी सगी माँ ! देखा, कैसा विद्युत वेग से उछल कर तुम्हारे अंक में जा पहुँचा । जब मचलता है तो व्याकुल हो तुम्हारे निकट ही दौड़ी आती हूँ। तुम अवश्य कोई रहस्यमयी नारी हो।
कैकेयी- (हँसकर) रहस्यमयी ! (जोर-जोर से हँस पड़ती हैं। राम से) सुना राम। माँ क्या कह रही हैं ? (शिशु राम भी हँस पड़ता है)
कौशल्या - सच तो कह रही हूँ। कोई कहेगा कि ये अभी रो रहा था।
कैकेयी - जाओ जीजी ! तुम शयन करो। राम को मैं सुला लूँगी। (कौशल्या का प्रस्थान) राम ! देखो, पूर्णिमा का चाँद कैसा हँस रहा है। तुम