________________
-
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/25 अभिनंदन करता हूँ। दुनियाँ जान ले कि अबला का बल शील उसे सबला बना संबल प्रदान करता है। शीलव्रत धारणकर नारी लोकोत्तर महान बन जाती है। देवी तुम्हारी जय हो।
(फूल बरसाकर अर्न्तद्धान हो जाता है) आनन्द - (अत्यन्त कांपता हुआ) हे माता ! मैं बड़ा ही दुर्बद्धि पापी . हूँ। तुम्हारे प्रताप से नितांत अनभिज्ञ था। मुझे क्षमा करो। आज्ञा दो, मैं किंकर की भांति तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा।
मनोरमा - प्रथम तो तुम यह प्रतिज्ञा करो कि कभी किसी नारी को नहीं सताओगे और मुझे उसी निर्जन वन में छोड़ दो जहाँ से तुम ले आये थे। बस और मैं कुछ नहीं चाहती। ___ आनन्द-माता ! मैं तो चाहता हूँ कि तुम यहीं सुखपूर्वक रहो। यथाशक्य धर्मसाधन करो।
मनोरमा - नहीं भाई, मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं रहना चाहती।
आनन्द - अच्छा, तुम्हारी इच्छा वन निवास की है तो तुम्हारी आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है।
छठवाँ दृश्य वियावान जंगल में मनोरमा बैठी हुई गा रही है।
गीत ये जग स्वार्थी, कोई अपना नहीं है। यहाँ आत्मा आज, कल फिर कहीं है। ये जग.॥ चतुर्गति में भटकी, नहीं चैन घाया। अरे चेत् चेतन, ठिकाना नहीं है। ये जग.॥ नरकगति भी भोगी, अनन्ती भ्रमण में। पशु मूक तो वेदना हा ! सही है। ये जग.॥ न सुरगति में सुख, निजधर्म के बिना ही। ये नर जन्म दुर्लभ. गंवाना नहीं है। ये जग.॥