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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/31 पकड़कर दस बार दण्ड बैठक नहीं लगाई थीं कि अब मुझे न मारोगे। और आज फिर..
सुखानन्द - जम्बू ! ये मनोरमा बुआ कौन हैं ?
जम्बू - (हर्षित होकर) हैं, हमारी वैजयन्ती नगर वाली बुआ हैं। बड़ी अच्छी है।
मंगल - (उछलकर) हाँ और जब से उन्हें दादाजी यहाँ ले आये हैं तब से हम लोगों को बड़ा अच्छा लगने लगा है।
जम्बू - देखिये। ये था निरा बुद्ध्। कक्षा में सबसे पीछे। बुआ ने पढ़ा पढ़ाकर चतुर बना दिया।
सुखानन्द - ओहो ! तो तुम्हारी बुआ अध्यापिका भी हैं। क्या मुझे भी पढ़ा देंगी ?
जम्बू - धत् ! आप इतने बड़े होकर पढ़ेंगे। हम लोगों ने कब से पढ़ना प्रारम्भ कर दिया है।
सुखानन्द - क्या हुआ ? क्या पढ़ना बुरी बात है ? हैं कहाँ तुम्हारी बुआ, मैं स्वयं ही उनसे पूछ लेता हूँ।
मंगल - अभी नहीं। सुखानन्द - क्यों ? क्या अभी कुछ काम में लगी हैं।
जम्बू - नहीं । कुछ समय पहिले मैं उनके पास गया था, तब वे रो रही थीं। मुझसे बोली, अभी खेलो फिर आना। ___ मंगल - हाँ, हमारी बुआ चाहे जब रोने लगती हैं। दादीजी, दादाजी बहुत सांत्वना देते हैं। न जाने उन्हें कौनसा दुःख है।
जम्बू - एक बार माँ कह रही थीं कि बुआ को फूफाजी की याद आ जाती है तो वे रोने लगती हैं।
मंगल - फूफाजी बड़े खराब हैं आते ही नहीं। जम्बू - मेरा वश चले तो अभी पकड़ कर ले आऊँ फूफाजी को।
सुखानन्द - (नेत्र सजल हो जाते हैं) तुम्हारे फूफा को तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ।...---- ---