Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 38
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/36" ___ यशोधर – सुना है कि वे उस समय घर पर नहीं थे। उनकी अनुपस्थिति में ही यह सब काण्ड हुआ। ज्ञात होने पर उन्हें अत्यन्त दुःख हुआ। पत्नी की घोर भर्त्सना की। पर अनहोनी तो हो चुकी थी। महाराज ! युग-युग से नारी ही नारी के द्वारा ही विशेष प्रताड़ित होती आई है। धृतिषेण - मंत्रीजी ! कदाचित् यह बात सत्य भी हो सकती है। यशोधर – यद्यपि आपका कथन यथार्थ है। तथापि गुप्तचरों के द्वारा यह बात मिथ्या प्रमाणित हुई है। मुझे जब से यह घटना मालूम हुई तबसे चित्त में शान्ति नहीं थी। आप जैसे न्यायप्रिय, वात्सल्यमयी रक्षक के राज्य में एक उच्च घराने की यह अप्रत्याशित घटना ह्रदय कुरेद रही थी। (कुछ उत्तेजित हो) मानस क्षुभित था। अस्तु ! पूर्ण अन्वेषण में तन्मय रहा। धृतिषेण - महामात्य ! आपने मुझसे कभी इस सम्बन्ध में चर्चा नहीं की। यशोधर - क्षमा करें महाराज ! आप अस्वस्थ चल रहे थे। तदर्थ मैंने आपको चिन्ता में डालना उचित नहीं समझा। इस समस्या का पूर्णतः समाधान निकल चुका है। अर्थात् मनोरमा अब वन का कष्टपूर्ण जीवन समाप्त कर अपने मामा के यहाँ काशी में है। सुखानन्द भी मनोरमा की खोज करते हुये वहीं पहुँचकर सुखपूर्वक निवास कर रहे हैं। धृतिषेण - महीपाल श्रेष्ठी को राज्य की ओर से आज्ञा दी जाय कि पुत्र और पुत्रबधू को अपने घर बुला लें। ___ यशोधर-मैंने उनसे चर्चा की थी। वे जाने को तत्पर थे कि श्रेष्ठी धनदत्त दोनों को अपने साथ लेकर आ गये। वे सब नगर सीमा पर रुके हैं। उन्होंने सन्देश भेजा है कि मनोरमा को अपने शील परीक्षण के बिना नगर में प्रविष्ट होना अस्वीकार है। अतः अब आप न्याय की बागडोर अपने हाथ में लें। और मनोरमा के शील के सत्यासत्य की परीक्षा कर यथार्थ तथ्य उजागर कर मनोरमा के ऊपर लगे कलंक को मिटाकर शील की रक्षा करें।

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