Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 36
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/34 के दर्शन हुये..... ओह मैं तो भूल ही गई। स्वार्थी जो हूँ न । अतीत की सुधि दिला- दिलाकर व्यथित कर रही हूँ । स्नान - भोजन आदि का ध्यान ही नहीं । (मंगल के साथ धनदत्त का प्रवेश, उनके सम्मान में मनोरमा सुखानन्द दोनों का खड़े हो जाना ।) धनदत्त - बैठो बेटा ! कब आये ? सुखानन्द – बस चला ही आ रहा हूँ मामाजी । धनदत्त - विदेश से कंब लौटे ? क्या अकेले ही आये हो ? ( दोनों परस्पर गले मिलकर भेंट करते हैं ।) बहुत दुर्बल प्रतीत हो रहे हो । यात्रा स्वास्थ्यानुकूल नहीं रही। सुखानन्द - यात्रा तो सुखद रही। कदाचित् दैव को हमारा सुख नहीं भाया । वैजयन्ती नगर की सीमा के निकट मनोरमा पर अत्याचार होने का ह्रदय विदारक संवाद मिला । अतः माता-पिता के दर्शन किये बिना ही उल्टे पैर लौट पड़ा। धनदत्त - तुम्हें कैसे मालूम पड़ा कि मनोरमा यहाँ है ? सुखानन्द – अकस्मात् ही यहाँ आ पहुँचा हूँ। इसी संन्यासी की भाँति वन-कन्दराओं में खोजता हुआ आपकी काशी नगरी में भाग्य खींच लाया। पर्याप्त समय निकल चुका था, सफलता नहीं मिली। आशा की क्षीणसी रेखा भी धुंधली हो गई थी । अचानक मुझे याद आई कि कहीं आपके घर मनोरमा विश्राम न ले रही हो । बात सच निकली। I धनदत्त - होनहार प्रबल थी । भाग्य की रेखायें किसने देखीं। बेटा ! इस मनोरमा ने बहुत संकट झेले। तब कहीं इसकी मुझसे वन में भेंट हुई। वह अत्यन्त अनुनय विनय करने पर कठिनता से यहाँ आई है। लड़कियों के अपने घर चले जाने से मेरा घर सूना था, सो इसके आने से घर की शोभा बढ़ गई। जम्बू व मंगल तो इसके बिना एक क्षण भी नहीं रहते। पर ये उदास

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