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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/33 मनोरमा- ये व्यर्थ की बातें जाने दीजिये। आप यहाँ इस तरह अचानक कैसे आ गये ? व्यापार कैसा था ? सब साथी कहाँ हैं ?
सुखानन्द - ओह ! तुम्हारी शंका उचित है। मैं पहले अपनी आपबीती ही बता दूं। मनोरमा ! तुमसे विदा लेकर हमारे जलपोतने रत्नद्वीप की ओर प्रयाण किया। मार्ग में अनेक देश देशांतरों में सामग्री का क्रय-विक्रय करते हुये लक्ष्य पर पहुँचे। वहाँ से रत्नादि विविध सामग्री ले स्वदेश सकुशल लौटे। ___मनोरमा - प्रसन्नता है कि आपकी यात्रा सफल हुई।
सुखानन्द - वैजयन्ती नगर की सीमा पर ज्ञात हुआ कि मेरे पीछे से तुम्हारी कितनी दुर्दशा हुई है। धैर्य न रहा ? जिस वैभव ने मुझ से तुम्हें पृथक कर विरहाग्नि की वन्हि में जलाया और कल्पनातीत वेदना से व्यथित किया। वह निधि माता-पिता को समर्पित करने का उत्तरदायित्व साथियों पर छोड़ मैं तुम्हारी खोज में निकल पड़ा। ___ मनोरमा - हाय हाय मेरे कारण आपको इतने दारुण कष्टों का सामना करना पड़ा। भला ऐसा भी क्या मोह। यह कार्य तो अनुचरों के द्वारा भी हो सकता था।
सुखानन्द - प्रिये ! इससे अंतर्व्यथा शांत न होती, सन्तुष्टि कैसे मिलती जबतक मैं कुछ प्रायश्चित न करता। जंगलों-जंगलों की खाक छानी। नगरनगर भटका पर तुम्हारी छबि का आभास भी न मिला। बस जीवन बच गया, (निराशा भरे स्वर में) सोचा इसका भी अन्त कर दूँ।।
मनोरमा - नहीं ! नहीं ! ऐसी अशुभ बातें मुँह से न निकालिये नाथ! आप युग-युग जियें। आपको मेरी उम्र भी लग जाए।
सुखानन्द-सो तो देख रहा हूँ कि विधाता को यह स्वीकार नहीं था। आशा ने पुनः अपना सम्मोहन मन्त्र चलाया। उसी से प्रेरित हो मैं तुम्हारे मामा के यहाँ आया। सहसा तुम्हें देख अतृप्त नयन तृप्त हुये।
मनोरमा - मुझ पर दैव (भाग्य) अति प्रसन्न है कि घर पर ही प्रियतम