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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/37 धृतिषेण - निर्णय करना असाध्य नहीं तो दुःसाध्य अवश्य है। आज विचार करूँगा। तत्पश्चात् न्याय सच्चा होगा। (परदा गिरता है)
नवमा दृश्य शयन-कक्षा में शय्या बिछी हुई है। उसपर सुन्दर कलापूर्ण कालीन बिछा हुआ है। यत्र-तत्र सुगन्धित पुष्प कलियाँ बिखरी हुई हैं। रत्नजटित दीपाधार पर मन्द-मन्द दीपक मुस्कुरा रहा है। एक ओर सुवासित अगरबत्तियों के उठते हुए धूम्र से वायुमण्डल महक रहा है।
धृतिषेण - (स्वगत) मनोरमा के इस कलंक को कैसे मिटाया जाय, कुछ समुचित उपाय नजर नहीं आता। क्या करूँ ? यदि उसे उसकी सासु माँ के कहने मात्र से कलंकिनी घोषित करता हूँ तो शायद यह न्याय सच्चा नहीं होगा? और शीलवती घोषित करने के लिए मेरे पास कोई सत्य साक्ष्य नहीं है। परीक्षा करने का कोई उपाय समझ में नहीं आता। कोई दैवी चमत्कार ही इसे आसान बना सकता है। इसप्रकार विचारमग्न महाराज करवट लिये हुए निद्रामग्न हो गए। रात्रि के अन्तिम प्रहर में महाराज धृतिषेण स्वप्न देखते
नेपथ्य से - राजन् ! तुम्हें अधिक व्यग्र होने की आवश्यकता नहीं। कल प्रभात होते ही न्याय करने की घोषणा कर दो। हमने नगर द्वार अवरुद्ध कर दिये हैं। जो शीलवती नारी के चरण-स्पर्श से ही खुल सकेंगे। सती मनोरमा के शील परीक्षण के पश्चात् न्याय करने में तुम्हें कोई मुश्किल नहीं हागी। (थोड़ी देर बाद जागकर शय्या पर बैठ जाते हैं व चारों तरफ अवाक् हो देखते हैं कोई दिखलाई नहीं देता)...
धृतिषण - (स्वगत) सचमुच ही नगर द्वार बन्द हो गये हैं या यह स्वप्न मात्र ही है। ..... किन्तु स्वप्न मिथ्या नहीं हो सकता। कारण कि स्वप्नवेत्ताओं का कथन है कि ब्रह्ममुहूर्त के स्वप्न बहुधा सत्य ही हुआ करते हैं और जो वाणी सुनाई पड़ी थी, वह अत्यन्त मृदुल, आकर्षक एवं ओजपूर्ण थी।
नेपथ्य से - महाराज ! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये।