Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 34
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/32 मंगल - सच ? ....... - . -- सुखानन्द - उनका नाम सुखानन्द है न । जम्बू – हाँ यही नाम दादी माँ लेती हैं। सुखानन्द - वैजयन्ती नगर में रहते हैं। अभी कुछ दिन पहिले बाहर से आये हैं। मंगल - (हर्षित हो) अरे आप तो सारा वृतांत जानते हैं ? अवश्य ही आप कोई पहुँचे हुये महात्मा हैं। __ जम्बू - (भीतर दौड़ता हुआ जाता है) बुआ ! बुआ ! बाहर द्वार पर एक साधु आये हैं। वे फूफाजी की बातें बतला रहे हैं। चलो बुआ, चलो। (आंचल पकड़कर ले आता है) सुखानन्द - मनोरमा तुम मिल गयीं ? कृतकृत्य हुआ मैं। मनोरमा- (हर्षित हो) दर्शन पाकर कृतार्थ हुई देव । यह परिवर्तन कैसा? डबडबाई हुई आँखों से चरण छूती है। सुखानन्द - (मनोरमा का हाथ पकड़ते हुये पैर हटाकर) नहीं !, मुझे पैर पुजाने का अधिकार नहीं। मनोरमा - भला आप यह कैसी बात कर रहे हैं। चलिये अंतरकक्ष में चलें। ___ मंगल और जम्बू – (हर्षोल्लास के साथ) फूफाजी आ गये। फूफाजी आ गये। ___ मंगल - (जम्बू से) तू दादी माँ को फूफाजी के आने की खबर दे दे। और मैं दादाजी को यह शुभ संवाद सुनाता हूँ। मनोरमा - आपकी मनोदशा स्वस्थ प्रतीत नहीं होती। आप कहाँ से आ रहे है ? क्या व्यापार में कुछ हानि हो गई है ? सुखानन्द - (आह भरते हैं) हाँ ! जीवन के व्यापार में लम्बा नुक्सान खा बैठा हूँ। मनो ! तुम्हें मेरे कारण बहुत दुख देखना पड़े। तुम यहाँ कैसे आ गई ? मैंने सुना था तुम्हें माताजी ने जंगल में असहाय छुडवा दिया था।

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