Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 31
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/29 धनदत्त - चल बेटी ! विलम्ब न कर। मनोरमा - आपका आश्रय पा मैं कृतार्थ हुई। चलें। (परदा गिरता है) नेपथ्य से - मामा धनदत्त अपनी भानजी मनोरमा को अपने यहाँ ले आते हैं एवं सुखपूर्वक रखते हैं। यद्यपि मनोरमा शारीरिक कष्ट से तो अवश्य मुक्त हो गई थी, तथापि पतिव्रता का मानसिक कष्ट दिन दूना रात चौगुना वृद्धिंगत हो रहा था। वह खिन्न मन रहती। इसी तरह वह हर्ष-विषाद मिश्रित काल-यापन कर रही थी। इधर कुमार सुखानन्द ने अपनी विलक्षण बुद्धि से व्यापार में आशातीत सफलता प्राप्त की। लम्बी अवधि व्यतीत होने पर स्वजनों का विछोह उनके हृदय में खटकने लगा। तब स्वअर्जित अतुल वैभव के साथ मातृभूमि की ओर लौट पड़े। मार्ग में क्रम-क्रम से उन्हें माता-पिता, बंधु-बांधवों की सुधि आ रही थी तथा उनसे मिलने के लिये आतुरता थी। प्राणप्रिय अर्धांगिनी मनोरमा की भोली-भाली मुखाकृति नेत्रों के आगे नृत्य करने लगी। वे अतीत की मधुर यादों में लीन हो गये। पथविस्तृत, जल्दी समाप्त कैसे हो । समय अविराम गति से सरकता जा रहा था। इतनी लंबी प्रतीक्षा के लिये मन में धैर्य न था। वे विचारने लगेकाश ! मैं पक्षी होता तो उड़कर शीघ्रातिशीघ्र अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच जाता। आनन्दविभोर हो मधुर मिलन की घड़ियों की प्रतीक्षा करते हुये ज्योंत्यों कर कुछ दिनों में नगर के समीप आये। वे प्रमुदित मन सोच रहे थे कि जब मैं देश-देश के नये-नये अनोखे उपहार प्रिया को भेंट करूँगा तो वह आश्चर्यान्वित हो उठेगी। सहसा उनका ह्रदय एक अज्ञात आशंका से कांप उठा। ठीक इसी अवसर पर उन्हें किसी नागरिक के द्वारा यह दुःसंवाद मिलता है कि मनोरमा को कलंक लगा कर घर से निकाल दिया है। यह सुनते ही वे मूछित हो गये। जागृत होने पर सब सामान पिताजी की सेवा में समर्पण करने के लिए साथियों को सौंप दिया। स्वयं योगी का वेष धारण कर

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