Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 30
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/28.... मनोरमा भी तुम्हारे ही नगर के श्रेष्ठि महीपाल के यहाँ ब्याही है। सुना है दामाद सुखानन्द वाणिज्य-हेतु परदेश गये हैं। कदाचित् तुम्हारा उनसे परिचय हो। तुम अपने श्वसुर आदि का नाम बतला देना तो मैं समधी महीपालजी को सच्चा वृत्तांत बताकर नगर नरेश से न्याय करवाऊँगा। सतीत्व की अवहेलना करना हँसी-खेल नहीं है। __(मनोरमा आवेग न सम्हाल सकने के कारण रो पड़ती है। उसकी हिचकियाँ बंध जाती हैं। आँखों से निरन्तर अश्रुप्रवाह होने लगता है और वह आँचल के छोर से मुँह छिपा लेती है।) धनदत्त - रोने क्यों लगी बेटी ! अनायास तुम्हें क्या हो गया ? धैर्य धरो, घबराओ नहीं। कर्मों के चक्र से बड़े-बड़े सामर्थ्यवान भी नहीं बचे। रो-रोकर मन उदास न करो। मनोरमा - मामा ! तुम्हारी मनोरमा तो मैं ही हूँ। मुझे क्षमा करो। धनदत्त-(अश्रुपात करते हुये ह्रदय से लगा लेते हैं। हर्ष-विषाद के कारण मुँह से बोल नहीं फूटते) तुम.......तुम.......मनोरमा (दोनों ओर से कुछ क्षण अश्रुवर्षा होती है पश्चात्) मेरी बेटी पर यह वज्रपात ! भगवान ! यह कैसी विडम्बना । सुखों में पली सुकुमारी कन्या पर यह महान दुःख ! कुलीन पुत्री पर घृणित दोष लगाकर उन लोगों ने उचित नहीं किया।....... आश्चर्य, मेरी आँखों पर ऐसा परदा पड़ा कि इतनी देर तक मैं पहिचान ही नहीं सका। और बिटिया ! तू भी न पहिचान सकी अपने मामा को। मनोरमा - पहिचान तो गई थी। पर....पर मैंने सोचा व्यर्थ ही आपको दुखित करूँ। जब आपका घर ले चलने का विशेष आग्रह देखा तो मुझसे न रहा गया। स्वयं को प्रकट कर ही बैठी। धनदत्त - अर्थात् तू जानबूझकर घर नहीं चलना चाहती थी। क्यों न ? धन्य है तेरी सहिष्णुता । सच है जिस समय मनुष्य पर विपत्तियाँ आक्रमण करती है; उस समय प्रकृति ज्ञान का भण्डार खोल देती है। मनोरमा - और ज्ञान से उत्पन्न धैर्य सम्बल बन जाता है।

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