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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/26 प्रभो ! बल मुझे दो कि संयम धरूँ मैं।
'किरण' ले जगत से तू शिक्षा यही है। ये जग.॥ (मनोरमा के मामा धनदत्त श्रेष्ठि का प्रवेश)
धनदत्त – (विस्मित से चारों ओर देखते हैं) इस निर्जन वन में करुण गीत की ध्वनि ! अवश्य कोई सम्भ्रांत कुल की ललना है। स्वर में कैसी सरलता दिग्दर्शित हो रही है। गीत में आध्यात्मिक रस बरस रहा है। जान पड़ता है भाग्य के दुर्विपाक से उस पर कोई महान कष्ट आ पड़ा है। ......ध्वनि इसी ओर से आ रही थी। चलूँ आगे बढ़कर देखू। (चारों ओर देखते हुये मनोरमा के पास पहुँच जाते हैं)
धनदत्त - हे पुत्री ! तुम इस निर्जन वन में एकाकी निवास क्यों कर रही हो ? (मनोरमा को भयभीत देखकर) घबराओ नहीं। तुम मेरी बेटी के समान हो निश्चित रहो। तुम्हारा कोई अनिष्ट न होगा। कहो, कहो बेटी ! निर्भय होकर कहो, अपनी विपन्नावस्था की कथा । तुम्हारे दुःख निवारण का भरसक प्रयत्न करूँगा।
मनोरमा - (स्वगत) “हे प्रभु ! क्या तुमने मेरी पुकार सुनली?
(नेपथय से - धनदत्त श्रेष्ठी मनोरमा के मामा हैं, वह अपने कलंक की कथा मामा को बतला कर व्यथित नहीं करना चाहती तथा इस कलंकित अवस्था में उनके सामने भानजी के रूप में प्रकट भी नहीं होना चाहती। मामा उसे पहिचान नहीं पाये। वे स्वप्न में भी अनुमान नहीं कर सकते कि भानजी मनोरमा जिसका कि विवाह अभी कुछ ही वर्ष पहिले वैजयन्ती के नगर श्रेष्ठि के सुपुत्र सुखानन्द से हुआ था। वह इस बीहड़ वन में निस्सहाय अकेली होगी। इसके अतिरिक्त मनोरमा की निरन्तर बढ़ती हुई आयु के कारण तरुणाई की क्षण-क्षण परिवर्तित अवस्था होने के कारण अभी वे इस रहस्य से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं।)" हे पितृतुल्य महाभाग ! आपकी वाणी अपूर्व वात्सल्य की वृष्टि कर रही है। पर महामन ! कहीं मैं अभागिन अपनी बात बतला आपका सौहार्द्र न खो बैठू।