Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 26
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/24 आनन्द - प्रियतमा की गालियाँ भी कर्णप्रिय होती हैं। सब कुछ तो कह चुकी, अब मनोरथ पूर्ण करो (हाथ पकडने के लिये आगे बढ़ता है) __ मनोरमा - (घबराकर) खबरदार जो एक कदम भी आगे बढ़ाया तो (पीछे हटकर हाथ जोड़ प्रार्थना करती है) हे प्रभु, दीनबन्धु ! मेरी लाज तुम्हारे ही हाथ है। यहाँ मेरा कोई नहीं। मेरा सर्वस्व लुटा जा रहा है। यह नरपिशाच, वासना का कीट मेरा सतीत्व नष्ट करने पर तुला है। रक्षा करो भगवन् ! रक्षा करो। यदि मैं भ्रष्ट हो गई तो धर्म की मर्यादा लोप हो जाएगी। युग युगों तक मानव धर्म पर विश्वास न कर सकेगा। ___ आनन्द - देखता हूँ यहाँ तेरी रक्षा के लिये कौन सा भगवान नीचे उतरता है। (हाथ पकड़ना चाहता है कि अदृश्य शक्ति के द्वारा पीठ पर मार पड़ने लगती है। राजकुमार यहाँ वहाँ भागता है, चीखता और चिल्लाता है पर मार पड़ना बन्द नहीं होती। हारकर मनोरमा की शरण ग्रहण करता है) हाय मरा, मरा रे बचाओ ! हे पुण्यशीला जननी मेरी रक्षा करो। मनोरमा - (आनन्द के कातर वचनों को सुनकर दयार्द्र हो जाती है। अदृश्य शक्ति को लक्ष्य कर) मेरे अकारण हितैषी महानुभाव ! आपने मेरी रक्षा कर नारियों में शील के प्रति दृढ़तम विश्वास जगा दिया है। मैं उपकृत हुई एवं अपने उपकर्ता के पुण्यदर्शन कर कृतकृत्य होना चाहती हैं। बारबार अभ्यर्थना करती हूँ। कृपया मेरा अनुरोध स्वीकार कर प्रगट हो ओ। तथा राजकुमार आनन्द को क्षमा करें। (उत्तम वस्त्रालंकारों से वेष्टित सुन्दर रूपवान देव का प्रगट होना। नेपथ्य में मधुर ध्वनि होती है)। देव - शील शिरोमणि देवी मनोरमा ! आपको शील पर दृढ़ देखकर स्वर्ग में इन्द्र का आसन कंपायमान हुआ। उन्होंने अवधिज्ञान से तुम्हारे कष्ट को जानकर निवारणार्थ मुझे भेजा है। सत्य ही देवराज इन्द्र ने आपके पतिव्रत की जैसी प्रशंसा की थी, उससे भी अधिक प्रत्यक्ष मैंने देखा । धन्य है देवी, तुम श्लाघ्यनीय हो। तुम सुर असुरों से पूजित हो, मैं तुम्हारा शत-शत

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