________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/22 आनन्द - मनोरमा, आज तुम विशेष उदास प्रतीत होती हो ? (मनोरमा जो अभी तक बहिन संबोधन सुनने की अभ्यस्त हो गई थी। एकाएक इस नवीन सम्बोधन से चौंक उठती है। पर राजकुमार का अगला वाक्य उसे यथोचित परिस्थिति में स्थापित कर देता है। वह अपनी भ्रमपूर्ण धारणा पर मन ही मन लज्जित हो पश्चाताप करती है।)
मनोरमा - नहीं भैया ऐसी तो कोई बात नहीं है।
आनन्द - हृदय की बात मुखाकृति से पूर्णतः ज्ञात हो जाती है। तुम्हें क्या कष्ट है ? आतिथ्य में कौनसा अभाव खटकता है ? बतलाओ, सम्भवतः मैं पूर्ण कर सकूँ।
मनोरमा -व्यर्थ मुझे लज्जित न करें भैया। जब से आई हूँ तब से अनुभव कर रही हूँ कि तुम मेरे लिये चिंतित ही रहते हो। कितना कष्ट दे रही हूँ। सोचती हूँ, इस उपकार से कैसे ऊऋण हो सकूँगी ?
आनन्द - मैं कृतकृत्य हुआ। वचन दो कि सदा प्रसन्न ही रहोगी।
मनोरमा - ऐसे कर्त्तव्यशील भाई की बहिन बनकर मैं अपने को भाग्यशाली समझती हूँ।
आनन्द - पर मैं तुमसे कुछ और ही आशा रखता हूँ। मनोरमा - स्पष्ट कहो। मैं तुम्हारा अभिप्राय समझी नहीं भैया।
आनन्द - सुन्दरी तुम्हारे मुख से "भैया" शब्द सुहावना नहीं लगता। मुझे प्रियतम कहकर सम्बोधित करो। कब तक अन्तर में दाह छिपाये रहूँ। जब से तुम्हारे सौन्दर्य का मधुपान नयनों ने किया है; तब से हृदय दग्ध हो रहा है। अपना शीतल प्यार दे मुझे तृप्त करो प्यारी ! ___मनोरमा - (तीव्र क्रोध से काँपते हुये) अरे नराधम ! कुछ समय पहिले जिस मुख से तूने मुझे बहिन कहा था, उसी मुख से कुवचन निकालते तुझे लज्जा नहीं आती। तेरी जिह्वा के शत-शत खण्ड नहीं हो जाते।