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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/20 मुझसी अनेक बहिनों ने, यह व्यथा सही है। पर तव प्रताप से वह, स्थिर नहीं रही है। मम वेदना निवारो, है अब हमारी बारी।
है इस विजन में मुझको, प्रभुवर शरण तुम्हारी ॥ (इतने में राजसी वेषभूषा से सुसज्जित राजगृह के राजकुमार आनन्द का प्रवेश)
राजकुमार आनन्द - (आश्चर्यान्वित हो) देवी ! इस निर्जन वन में तुम अकेली ? क्या तुम्हारे साथी विछुड़ गये हैं या तुम मार्ग भूल गई हो।
मनोरमा - भैया ! मैं कर्मों की मारी भाग्य की सताई हूँ। जाओ कृपाकर अपना रास्ता देखो।
आनन्द - देवी, दुखित न हों। कृपया अपना परिचय दें। मैं दुःखनिवारण में तुम्हारी प्राणपन से चेष्टा करूँगा। ____ मनोरमा - बंधु ! मुझे अपनी पूर्व करनी का फल भुगतने दें। सहायता की मैं तनिक भी इच्छुक नहीं।
आनन्द - नहीं देवी ! मानव धर्म है कि दूसरों की सहायता करें। मैं एक दीन-हीन अवला को साक्षात् कालकी दाढ़ में जान-बूझकर नहीं छोड़ सकता। मेरे पौरुष को चुनौती है और इस चुनौती को स्वीकार न करना पुरुषार्थ पर कलंक लगाना है। कहाँ हैं तुम्हारे कुटुम्बी ? मैं अपने गुप्तचरों से धरती का चप्पा-चप्पा छनबाकर उनका पता लगवा लूँगा।
मनोरमा - मेरे हितैषी बन्धु ! मैं कुछ भी बतलाने में असमर्थ हूँ।
आनन्द - जान पड़ता है आपको तीव्र मानसिक आघात पहुँचा है। अस्तु, परिचय पूछने की धृष्टता न करूँगा। आज्ञा दें, मैं उसी गंतव्य स्थान तक आपको पहुँचा दूं।
मनोरमा - यह विजन ही मेरा घर है। पशु-पक्षी मेरे स्नेहीजन। मेरे जीवन-मरण की डोर इसी वन से बंधी है।