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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/12 योग्य ही आपने वचन कहे हैं। मैं आपका सहर्ष शतशः अभिनन्दन करती हूँ। किन्तु एक बात है, उद्योग आप घर में रहकर भी कर सकते हैं। विदेश जाना ही अभीष्ट नहीं, प्रयोजन तो केवल उद्योग से है।
सुखानन्द - नहीं ऐसी बात नहीं। यहाँ उद्योग करने से मेरा गौरव क्या बढ़ेगा ? क्या पिता के नाम पर यश उपार्जित करूँ?..... क्यों न अपने बाहुबल से धन अर्जित कर पिता की कीर्ति में चार चाँद लगा दूँ ?
मनोरमा - आर्यपुत्र ! सच कहते हैं। आपका मनोरथ सिद्ध हो, क्या आपने पूज्यनीय माताजी व पिताजी से अनुमति ले ली ?
सुखानन्द - उनसे अनुमति लेने के प्रथम मुझे तुम्हारी स्वीकारता की आवश्यकता थी। तुम्हारी ओर से भली-भांति आश्वस्त हो उनका भी आशीर्वाद प्राप्त कर मैं शीघ्र ही विदेश प्रस्थान कर दूंगा।
मनोरमा - और मैं ? मैं भी चलूँगी।
सुखानन्द - प्रिये, तुम यहीं सुख से रहो। परदेश में मेरे साथ कहाँ भटकती फिरोगी। तुम जैसी कोमलांगी, कहाँ वे कठिन बाधायें सह सकती हो ?
मनोरमा - नाथ आर्य संस्कृति तो यही है कि जहाँ पति, वहाँ पत्नी। नारी तो पुरुष की छाया है। कहीं छाया भी व्यक्ति से दूर होकर अपना अस्तित्व स्थिर रख सकती है ?
सुखानन्द - मनोरमा ! तुम ठीक कहती हो, पर मैं वहाँ स्वतन्त्र होकर उद्योग में तन्मय न रह सकूँगा। परदेश में तुम्हारी सुविधाओं का ध्यान भी मुझे ही रखना होगा।
मनोरमा - मैं कब सुविधाओं की आकांक्षिणी हूँ। आप कष्ट सहें और मैं सुख वैभव से परिपूर्ण हो नित्य वैभव का गरल पान करूँ। नहीं असंभव है नाथ ! कुलवंती नारी पति सेवा में ही अपने को धन्य मानती हैं। अपने चरणारविंदों पर मुग्ध भ्रमरी को दूर न करें देव !