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सत् विज्ञ पुरुषोंने सुहृदू वर धर्म'१ उसकोही कहा हगर ज्ञान शुभ चारित्रका समुदाय ही सद्धर्म है, है मोक्षका पथ भी यही इसमें भरा बहु मर्म है।
जैन पूर्वज। प्राचीन पुरुषोंके गुणोंको कौन कह सकता यहां?
सम्पूर्ण सागर नीर यो घट मध्य रह सकता कहां? है जगत अब भी ऋणी उनके विपुल उपकारका,
उनने पढ़ा था पाठ नित उपकारका उपकारका । वे विश्व सेवाके लिये प्रस्तुत सदा रहते रहे, पर हित अनेकों कष्ट वे आनन्दसे सहते रहे। मरना भवन में कायरों सम अति भयङ्कर पाप था,
घनमें समरमें प्राण तजते कुछ न उनको ताप था। वे रिक्त कर आते यहां,पर रिक्त कर जाते न थे,
सत्कार्य करने में कभी वे पूर्वज कायर न थे। जबतक यहां जीते रहे अद्भुत उन्हें कीर्ति मिली, १ संसार दुःखतः सत्त्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे ।
(स्वामी समंतभद्र) २ सदूरष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः।
(रत्नकरण्ड) .