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स्वाभाविकी वह चारुना इन मंडनों में है नहीं। अवलोकिये कोरी बनावट विश्वमें दो दिन रहे,
हा। तुच्छ सरिता ग्रीष्म ऋतुमें सर्वदा कैसे वहे ? वे पूर्व भूपति लोकमें सचमुच प्रजाके प्राण थे,
वे मानते निज प्रिय-प्रजाको सर्वदा सन्तान थे। हरते न थे अपनी प्रजाका द्रव्य वे अन्यायसे, मुख मोड़ सकते थे नहीं वे स्वप्नमें भी न्यायसे। था सर्व भारतवर्ष सुन्दर सर्वदा अधिकारमें, विख्यात थे अपने गुणों से वे नृपति संसारमें। जिनकी मृदुल-यशवल्लरी इस विश्वमें थी छागई,
उन न्यायनिष्ट नृपालगणसे वह महीपावन हुई। जब चंद्रगुप्त महीपका था शान्तिपद शासन यहां.
जीवन वितातेथे सभी सुख शांतिसे अपना यहां। करते रहे वे न्यायनित यों पोल कुछ चलती नथी.
हा । चापलूसीकी वहांपर दाल कुछ गलती न थी। करते हुये शासन उन्हें निज आत्महितकाध्यान था, है राज्य-क्षणभंगुर-सुखद इस घातका बहुज्ञान था। अवलोकके अवसर अहो ! वे छोड़ देते थे सभी, फिर कामिनी या राज्यकी इच्छा न करते थे कभी। श्रीभद्रबाहके पदोंका चन्द्र कितना भक्त था ?