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रहते यहां व्याख्यान सारे सामयिक निन्दा भरे,
उपदेशकोंसे पिण्ड छुटेगा हमारा कव हरे। दस पांच रुपये फीसके वे तो सहज ही मांगते, अपनी दुरंगी चालको वे स्वप्नमें कब त्यागते ?
परको लुभानेके लिये चे ढोंग क्या करते नहीं,
अपवाद अथवा पापसे मनमें तनिक डरते नहीं। श्रीमान् लोगोंकी बड़ाईका विपुल पुल बांधना, आता इन्हें अच्छी तरहसे स्वार्थ कोरा साधना ।
उपदेशकों की देखलो चहुंओर ही भरमार है,
क्या जाति अथवा धर्मका इनसे हुआ उपकार है ? ये तो परस्पर द्वेषका दुर्वीज चोना जानते, परकी भलाईमें नहीं अपनी भलाई जानते।
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इस पेट पोषणके लिये करने पड़ें उपदेश सव,
इसके लिये संसारमें धरने पड़ें दुर्वेश सव । सुनते रहे श्रोता प्रथम उपदेशको जिस भावसे, सुनते नहीं हैं आज वे उसकोकभी निजचावसे।