Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 180
________________ १६५ अब मानसे अपमानसे खेदित न होना चाहिये, यो व्यर्थ बातोंमें न अपना काल खोना चाहिये। अवसर मिला अतएव अब तो धर्मका साधन करो, पाई हुई पर्यायको शुभ कृत्य कर पावन करो। व्यर्थ-जीवन । जो है न विद्यावान नर धर्मी नहीं दानी नहीं, सत्कर्मका कर्ता नहीं गुणवान भी ज्ञानी नहीं। वह नर सदा संसारमें बस ! भूमिका ही भार है, नर रूपमें प्रगटित हुआ सुगका विकट अवतार है। शुभ शक्तिके रहते हुए उपकार नहिं जिसने किया, होते हुए भी सम्पदा नहिं दान दीनोंको दिया। सुन आतवाणी वन्धुकी जिसका नहीं पिघला हिया, सेवा न की यदि लोककी तो व्यर्थ वह जगमें जिया मैं कौन हूं ? गुण कौन मेरे और क्या अब प्राप्त है। किस कार्यहित मानव हुआमैं कौन मचा आप्त है, १ येषाम् न विद्या न तपो न दानम, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ते मृत्यु लोके भुवि भारभूता, मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ।

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