Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

View full book text
Previous | Next

Page 181
________________ १६६ है विश्व सेवा वस्तु क्या जिसने विचार किया नहीं, होके मनुज भीलोकमें वह हाय हाय ! जिया नहीं। आहार या आराम ही जिसको सदा अतिइष्ट है, गौरव स्वयं ही हाथसे करता अहो वह नष्ट है। आये यहां जैसे अहो वैसे चले वे जायंगे, अपकीर्तिकी ही पोटरी निज शीशपर ले जायंगे। त्यागियो। यह वेश धरकरके तनिक उपकार निज परका करो, उपदेश देकर जातिकी अज्ञानताको तुम हरो। सर्मकी महिमा कृपाकर आप अब बतलाइये, सन्मार्ग विमुखोंको सहज सन्मार्ग में भी लाइये। अव नाम त्यागी हो न केवल भाव त्यागी हुजिये, निज साधुतासे शीघ्र ही कल्याण जगका कीजिये। जिस जातिका खाते जरा उस जातिकी रक्षा करो, यदि यह नहीं स्वीकारतो अपनी प्रथक मिक्षा करो। धर्म-धन। जय धर्ममें आसक्त थी सम्पूर्ण यह भारत मही. दुग्ध शोक कोई भूल करके भी न पाता था कभी।

Loading...

Page Navigation
1 ... 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188