Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 179
________________ FREE यह तो सभी ही जानते हैं विश्वमें दुख घोर है, पर दुःख सहनेके लिये भी चित्त वन कठोर है। जिस भांति अतिहँसते हुये जग-सौख्यको भोगा यहां उस भांति अघतोदुःखको भी चाहिये सहना यहां। तुम शीलके तस्कर-बदन पर दो तमाचा खींचके, जो जा वसे यमलोकमें अपने दृगों को मींचके। कर गुप्त पापों को बढ़ाओ मत कभी भूभारको, अन्तः करण मजबूत है दिखलाइये संसारको । ७८ क्या सौख्य मिलता है मनुजको तीब्र विषयाशक्तिसे, धोनान पड़ता हाथ उनको क्या अलौकिक शक्तिसे। सोचो विचारो आप ही जगकी दुखद दुर्वासना, त्रैलोक्यतीनों कालमें भी है न सुखकी साधना। वह नर नहीं है देव है इस लोकका आराध्य है, जिसका यहांपर सर्वदा परमार्थ-सुख ही साध्य है? निजधर्म साधनही तुम्हारारहगया अब कार्य है, माता-पितासे भी तुम्हारा कष्ट यह अनिवार्य है।

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